सर्गे—सृष्टि के प्रारम्भ में; तप:—तपस्या; अहम्—मैं; ऋषय:—ऋषिगण; नव—नौ; ये प्रजेशा:—जो उत्पन्न करने वाले हैं; स्थाने—सृष्टि का पालन करते समय मध्य में; अथ—निश्चय ही; धर्म—धर्म; मख—भगवान् विष्णु; मनु—मनुष्यों के पिता; अमर—देवता जिन पर पालन का भार है; अवनीशा:—विभिन्न लोकों के राजा; अन्ते—अन्त में; तु—लेकिन; अधर्म—अधर्म; हर—शिव; मन्यु-वश—क्रोध के वशीभूत; असुर-आद्या:—नास्तिक, भक्तों के शत्रु; माया—शक्ति; विभूतय:—शक्तिशाली प्रतिनिधि; इमा:—ये सब; पुरु-शक्ति-भाज:—परम शक्तिशाली भगवान् के ।.
अनुवाद
सृष्टि के प्रारम्भ में तपस्या, मैं (ब्रह्मा) तथा जन्म देने वाले ऋषि प्रजापति रहते हैं; फिर सृष्टि के पालन के अवसर पर भगवान् विष्णु, नियामक देवता तथा विभिन्न लोकों के राजा रहते हैं। किन्तु अन्त काल में अधर्म बचा रहता है और रहते हैं शिव तथा क्रोधी नास्तिक इत्यादि। ये सब के सब परम शक्ति रूप भगवान् की शक्ति के विभिन्न प्रतिनिधियों के रूप में रहते हैं।
तात्पर्य
यह भौतिक जगत भगवान् की शक्ति से उत्पन्न है, जिसका प्राकट्य सृष्टि के प्रारम्भ में आदि प्राणी ब्रह्मा की तपस्या से होता है। इसके बाद नौ प्रजापति आते हैं, जिन्हें महर्षि कहते हैं। जब सृष्टि के पालन की अवस्था आती है, तो भगवान् विष्णु की भक्ति या यथार्थ धर्म, विभिन्न देवता तथा विभिन्न लोकों के राजा प्रकट होते हैं, जो विश्व का भरण-पोषण करते हैं। जब इस सृष्टि का अन्त होने को होता है, तो सर्वप्रथम अधर्म प्रकट होता है, फिर क्रोधी नास्तिकों के साथ-साथ शिव रहते हैं। किन्तु ये सब परमेश्वर के विभिन्न स्वरूपों के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। फलत: ब्रह्मा, विष्णु तथा महादेव (शिव) प्रकृति के विभिन्न गुणों के भिन्न-भिन्न अवतार हैं। विष्णु सतोगुण के, ब्रह्मा रजोगुण के तथा शिव तमोगुण के स्वामी हैं। इस प्रकार यह भौतिक सृष्टि क्षणिक अस्तित्व के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं और इसका उद्देश्य उन बद्धजीवों को, जो इस भौतिक जगत में आ फँसे हैं, मुक्ति का अवसर प्रदान करना है और इसमें जो मनुष्य भगवान् विष्णु के संरक्षण में सतोगुण प्राप्त कर लेता है, उसे वैष्णव नियमों का पालन करने के कारण, मुक्त होने का और भगवद्धाम जाने का सर्वाधिक अवसर मिलता है जहाँ से इस दुखमय जगत में फिर कभी लौटना नहीं होता।
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