श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 7: विशिष्ट कार्यों के लिए निर्दिष्ट अवतार  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  2.7.4 
अत्रेरपत्यमभिकाङ्‍क्षत आह तुष्टो
दत्तो मयाहमिति यद् भगवान् स दत्त: ।
यत्पादपङ्कजपरागपवित्रदेहा
योगर्द्धिमापुरुभयीं यदुहैहयाद्या: ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
अत्रे:—अत्रि मुनि की; अपत्यम्—सन्तान; अभिकाङ्क्षत:—आकांक्षा करते हुए; आह—यह कहा; तुष्ट:—प्रसन्न; दत्त:—दिया गया; मया—मेरे द्वारा; अहम्—अपने आपको; इति—इस प्रकार; यत्—क्योंकि; भगवान्—श्रीभगवान्; स:—वह; दत्त:— दत्तात्रेय; यत्-पाद—जिसके पाँव; पङ्कज—कमल; पराग—धूलि; पवित्र—पवित्र; देहा:—शरीर; योग—योग की; ऋद्धिम्— ऐश्वर्य; आपु:—प्राप्त किया; उभयीम्—दोनों लोकों के लिए; यदु—यदुवंश के पिता; हैहय-आद्या:—राजा हैहय इत्यादि ।.
 
अनुवाद
 
 अत्रि मुनि ने भगवान् से सन्तान के लिए प्रार्थना की और उन्होंने प्रसन्न होकर स्वयं ही अत्रि के पुत्र दत्तात्रेय (दत्त, अत्रि का पुत्र) के रूप में अवतार ग्रहण करने का वचन दिया। और भगवान् के चरणकमलों की कृपा से अनेक यदु, हैहय इत्यादि पवित्र हुए और उन्होंने भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही वर प्राप्त किये।
 
तात्पर्य
 भगवान् तथा जीवात्माओं के मध्य पाँच प्रकार से आध्यात्मिक सम्बन्ध स्थापित होते हैं—शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य तथा माधुर्य। अत्रि मुनि भगवान् से वात्सल्य भाव से जुड़े थे, अत: वे अपनी भक्ति की सिद्धि में भगवान् को पुत्र रूप में चाह रहे थे। भगवान् ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और उनके पुत्र रूप में स्वयं जन्म लिया। भगवान् तथा शुद्ध भक्त के बीच इस प्रकार के पुत्रत्व (वात्सल्य भाव) के सम्बन्ध के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। चूँकि भगवान् असीम हैं अत: उनके पिता-भक्तों की संख्या अनन्त है। वास्तव में भगवान् समस्त जीवात्माओं के पिता हैं, किन्तु भक्तों के आध्यात्मिक प्रेमवश वे पिता बनने की अपेक्षा किसी भक्त का पुत्र बनना अधिक पसन्द करते हैं। वस्तुत: पिता पुत्र की सेवा करता है, जबकि पुत्र पिता से सभी प्रकार की सेवाओं की माँग करता रहता है, अत: जो शुद्ध भक्त भगवान् की सेवा करना चाहता है, वह उन्हें पुत्र रूप में चाहता है, पिता रूप में नहीं। भगवान् भी भक्त की ऐसी सेवा स्वीकार करते हैं और इस प्रकार भक्त भगवान् से बढक़र हो जाता है। निर्विशेषवादी भगवान् से एकाकार होना चाहता है, किन्तु भक्त तो भगवान् से बढक़र होता है और बड़े से बड़े एकेश्वरवादी से आगे होता है। इस गूढ़ सम्बन्ध के कारण भगवान् के माता-पिता तथा अन्य सम्बन्धी योग की सभी ऋद्धियों को स्वत: प्राप्त कर लेते हैं। ऐसी ऋद्धियों में सभी प्रकार का भौतिक सुख, मुक्ति तथा सिद्धियाँ सम्मिलित रहती हैं। अत: भगवद्भक्त अलग से इनकी खोज करने में वृथा अपना समय नहीं गँवाता। मनुष्य को चाहिए कि जीवन के बहुमूल्य समय को भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में पूरी तरह लगाए। तब अन्य वांछित वस्तुएँ स्वत: प्राप्त हो जायेंगी। किन्तु इन सब उपलब्धियों के होते हुए भी मनुष्य को चाहिए कि भक्तों के चरणों पर अपराध करके गड्ढे में गिरने से अपनी सुरक्षा करे। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैहय है, जिसने भक्ति के द्वारा सारी सिद्धियाँ प्राप्त कर ली थीं, किन्तु भक्त के चरणों पर अपराध करने के कारण परशुराम ने उसका वध कर दिया। भगवान् अत्रि मुनि के पुत्र बने और दत्तात्रेय कहलाये।
 
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