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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 7: विशिष्ट कार्यों के लिए निर्दिष्ट अवतार  »  श्लोक 46
 
 
श्लोक  2.7.46 
ते वै विदन्त्यतितरन्ति च देवमायां
स्त्रीशूद्रहूणशबरा अपि पापजीवा: ।
यद्यद्भुतक्रमपरायणशीलशिक्षा-
स्तिर्यग्जना अपि किमु श्रुतधारणा ये ॥ ४६ ॥
 
शब्दार्थ
ते—ऐसे पुरुष; वै—निस्सन्देह; विदन्ति—जानते हैं; अतितरन्ति—आगे निकल जाते हैं; —भी; देव-मायाम्—भगवान् की आच्छादन शक्ति; स्त्री—यथा स्त्री; शूद्र—श्रमिक वर्ग के लोग; हूण—पर्वती लोग; शबरा:—साइबेरिया वासी या शूद्रों से भी निम्न; अपि—यद्यपि; पाप-जीवा:—पापी जीव; यदि—बशर्ते कि; अद्भुत-क्रम—आश्चर्यजनक कार्य करने वाला; परायण— भक्त; शील—आचरण; शिक्षा:—के द्वारा प्रशिक्षित; तिर्यक्-जना:—वे भी जो मनुष्य नहीं हैं; अपि—भी; किम्—क्या; — कहा जाय; श्रुत-धारणा:—जिन्होंने भगवान् के विषय में सुनकर भगवान् का भाव ग्रहण किया है; ये—वे ।.
 
अनुवाद
 
 पापी जीवन बिताने वाले समुदायों में से भी शरणागत लोग, जैसे स्त्री, शूद्र, हूण तथा शबर, यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी, तत्त्व ज्ञान के विषय में जान सकते हैं। वे भगवान् के शुद्ध भक्तों की शरण में जाकर तथा भक्तिपथ पर उनके पदचिह्नों का अनुसरण कर माया के चंगुल से छूट जाते हैं।
 
तात्पर्य
 कभी-कभी प्रश्न पूछा जाता है कि भगवान् की शरण में किस प्रकार जाया जाय। भगवद्गीता (१८.६६) में भगवान् ने अर्जुन से कहा कि वह उनकी शरण में आए, अत: जो लोग ऐसा नहीं करना चाहते, वे प्रश्न करते हैं कि ईश्वर है कहाँ जिसकी शरण में वे जाँए! ऐसे प्रश्नों का यहाँ उपयुक्त उत्तर दिया गया है। श्रीभगवान् भले ही आँखों के समक्ष उपस्थित न हों, किन्तु यदि कोई सच्चे दिल से मार्ग-दर्शन का इच्छुक है, तो भगवान् कोई प्रामाणिक व्यक्ति भेज सकता है, जो उसे भगवान् के धाम का ठीक ठीक रास्ता बता सके। आत्म-साक्षात्कार के पथ पर अग्रसर होने के लिए किसी भौतिक योग्यता की आवश्यकता नहीं होती। भौतिक जगत में यदि कोई किसी विशेष सेवा (नौकरी) को अपनाता है, तो उसके पास इस के लिए विशेष योग्यता भी होनी चाहिए। इसके बिना मनुष्य नौकरी के लिए अयोग्य रहता है। किन्तु भगवद्भक्ति के लिए जिस एकमात्र योग्यता की आवश्यकता है, वह है समर्पण (शरण में जाना)। यह समर्पण अपने हाथ की बात है। यदि मनुष्य चाहे तो तुरन्त समर्पण कर दे और उसी समय से उसका आध्यात्मिक जीवन प्रारम्भ हो जाता है। ईश्वर का प्रामाणिक प्रतिनिधि ईश्वर के ही समान श्रेष्ठ है अथवा दूसरे शब्दों में, ईश्वर का प्रेमी प्रतिनिधि अधिक दयालु और अधिक सरलता से प्राप्य है। पापात्मा भगवान् के पास सीधे नहीं पहुँच पाता, किन्तु ऐसा पापी मनुष्य भगवद्भक्त के पास सरलता से पहुँच सकता है। यदि कोई ऐसे भगवद्भक्त के मार्गदर्शन में चलना स्वीकार कर ले, तो उसे तत्त्व-ज्ञान प्राप्त हो सकता है; वह भी दिव्य शुद्ध भगवद्भक्त बन सकता है और मुक्त होकर भगवान् के धाम लौट सकता है जहाँ नित्य सुख प्राप्त है।

अत: इच्छुक व्यक्ति के लिए तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति तथा संसार के अनावश्यक, वृथा-संघर्ष से मुक्ति तनिक भी कठिन नहीं हैं। हाँ, उनके लिए ये अवश्य कठिन हैं, जो शरणागत नहीं हैं, मात्र व्यर्थ के कल्पनाकारी हैं।

 
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