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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 7: विशिष्ट कार्यों के लिए निर्दिष्ट अवतार  »  श्लोक 48
 
 
श्लोक  2.7.48 
सध्‌रयङ् नियम्य यतयो यमकर्तहेतिं ।
जह्यु: स्वराडिव निपानखनित्रमिन्द्र: ॥ ४८ ॥
 
शब्दार्थ
सध्र्यक्—कृत्रिम कल्पना या चिन्तन; नियम्य—वश में करके; यतय:—योगीजन; यम-कर्त-हेतिम्—आध्यात्मिक अनुशीलन की प्रक्रिया; जह्यु:—त्याग दी जाती है; स्वराट्—पूर्णतया स्वतन्त्र; इव—सदृश; निपान—कुँआ; खनित्रम्—खोदने का कष्ट; इन्द्र:—वर्षा का नियामक देवता ।.
 
अनुवाद
 
 ऐसी दिव्य अवस्था में ज्ञानियों तथा योगियों द्वारा न तो कृत्रिम रीति से मन को वश में करने की, न ही कल्पना या चिन्तन की आवश्यकता रहती है। मनुष्य ऐसी विधियों को उसी प्रकार त्याग देता है, जिस प्रकार स्वर्ग का राजा इन्द्र कुँआ खोदने का कष्ट नहीं उठाता।
 
तात्पर्य
 कोई गरीब आदमी पानी की चाहत के कारण कुँआ खोदता है और खोदने का कष्ट झेलता है। इसी प्रकार जिनका दिव्य बोध कमजोर है, वे या तो मानसिक चिन्तन करते हैं या इन्द्रियों को वश में करके ध्यान करते हैं। किन्तु उन्हें इसका ज्ञान नहीं होता कि जब कोई परम पुरुष, भगवान् की दिव्य प्रेमपूर्ण सेवा में संलग्न होता है, तो इन्द्रियों का नियन्त्रण तथा आत्मसिद्धि एकसाथ प्राप्त हो सकते हैं। इसीलिए परम मुक्त जीवात्माएँ भगवान् के कार्यकलापों को सुनने और जपने की इच्छुक रहती हैं। इस प्रसंग में इन्द्र का उदाहरण अत्यन्त उपयुक्त है। स्वर्ग का राजा इन्द्र इस जगत में बादल लाने की व्यवस्था करने तथा वर्षा कराने के लिए नियंत्रणकारी देवता है, अत: उसे अपनी व्यक्तिगत जलपूर्ति के लिए कुँआ खोदने का कष्ट नहीं उठाना पड़ता। उसे अपने लिए कुँआ खोदना हास्यास्पद होगा। इसी प्रकार जो भगवान् की प्रेमाभक्ति में लगे हुए हैं, उन्हें जीवन का परम लक्ष्य प्राप्त हो चुका है, अत: उनके लिए भगवान् का वास्तविक स्वभाव जानने या उनके कार्यकलापों को ज्ञात करने के लिए कल्पना करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। न ही ऐसे भक्तों को भगवान् की काल्पनिक या वास्तविक सत्ता के विषय में चिन्तन की आवश्यकता पड़ती है। भगवद्भक्ति में लगे रहने के कारण, शुद्ध भक्त पहले से ही कल्पना तथा चिन्तन से मिलने वाले फल प्राप्त कर चुके होते हैं। अत: जीवन की सिद्धि इसी में है कि भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगे रह जाये।
 
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