श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 7: विशिष्ट कार्यों के लिए निर्दिष्ट अवतार  »  श्लोक 51
 
 
श्लोक  2.7.51 
इदं भागवतं नाम यन्मे भगवतोदितम् ।
संग्रहोऽयं विभूतीनां त्वमेतद् विपुलीकुरु ॥ ५१ ॥
 
शब्दार्थ
इदम्—यह; भागवतम्—तत्त्वज्ञान; नाम—नामक; यत्—जो; मे—मुझको; भगवता—श्रीभगवान् से; उदितम्—प्रकाशित; सङ्ग्रह:—संकलन; अयम्—उसकी; विभूतीनाम्—विभिन्न शक्तियों का; त्वम्—तुम; एतत्—यह तत्त्वज्ञान; विपुली—विस्तार; कुरु—करो ।.
 
अनुवाद
 
 हे नारद, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने ही मुझे यह श्रीमद्भागवत नामक तत्त्व-ज्ञान संक्षिप्त रूप में बतलाया था और यह उनकी विभिन्न शक्तियों का संग्रह है। अब तुम स्वयं इस ज्ञान का विस्तार करो।
 
तात्पर्य
 भागवत का सार लगभग आधे दर्जन श्लोकों में श्रीभगवान् द्वारा वर्णित है, जो आगे दिया गया है। यह तत्त्व-ज्ञान है और भगवान् का समर्थ प्रतिनिधित्व करता है। परम होने के कारण यह श्रीमद्भागवत तत्त्व-ज्ञान से अभिन्न है। ब्रह्माजी को यह ज्ञान सीधे भगवान् से प्राप्त हुआ जिसे उन्होंने नारद को सौंपा फिर नारद ने श्रीव्यासदेव से उसे विस्तार करने का आदेश दिया। अत: परमेश्वर का दिव्य ज्ञान संसारी झगड़ालू व्यक्तियों द्वारा कपोल-कल्पित नहीं है वरन् यह शुद्ध, शाश्वत, संपूर्ण एवं तीनों गुणों की सीमा से परे है। इस प्रकार भागवत-पुराण दिव्य वाणी के रूप में भगवान् का साक्षात् अवतार है, अत: मनुष्य को चाहिए कि वह इस ज्ञान को भगवान् से ब्रह्मा, ब्रह्मा से नारद, नारद से व्यास, व्यास से शुकदेव, शुकदेव से सूत गोस्वामी की शृंखला में चली आ रही शिष्य-परम्परा में भगवान् के प्रामाणिक प्रतिनिधि से प्राप्त करे। वैदिक वृक्ष का पक्व फल, अचानक ऊँची शाखा से पृथ्वी पर गिरकर टूटे बिना एक हाथ से दूसरे हाथ में जाता रहता है। अत: जब तक उपर्युक्त परम्परा के प्रामाणिक प्रतिनिधि से इस तत्त्व-ज्ञान को नहीं सुना जाता तब तक मनुष्य इस ज्ञान को समझ नहीं सकता। इसे उन व्यवसायी भागवत वाचकों से नहीं सुनना चाहिए जो श्रोताओं की इन्द्रियों को तुष्ट करके जीविकोपार्जन करते हैं।
 
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