विभिन्न शक्तियों से सम्बंधित भगवान् के कार्यकलापों का वर्णन, उनकी प्रशंसा तथा उनका श्रवण परमेश्वर की शिक्षाओं के अनुसार होना चाहिए। यदि नियमित रूप से श्रद्धा तथा सम्मानपूर्वक ऐसा किया जाता है, तो मनुष्य निश्चित रूप से भगवान् की माया से उबर जाता है।
तात्पर्य
किसी विषय का गम्भीर ज्ञान मनचले लोगों के भावों से सर्वथा भिन्न होता है। ये मनचले या मूर्ख लोग बहिरंगा शक्ति के प्रसंग में भगवान् के कार्यकलापों को व्यर्थ मानकर अपने को झूठ-मूठ भगवान् की अन्तरंगा शक्ति में उच्च स्तर पर सम्मिलित बता सकते हैं, किन्तु सत्य तो यह है कि भगवान् की बहिरंगा तथा अन्तरंगा शक्तियों से सम्बन्धित कार्यकलाप समान रूप से श्रेष्ठ हैं। दूसरी ओर, जो भगवान् की बहिरंगा शक्ति के चंगुल से अभी तक छूट नहीं पाये, उन्हें बहिरंगा शक्ति के प्रसंग में भगवान् के कार्यकलापों का नियमित श्रवण करना चाहिए। उन्हें मूर्खतावश रासलीला जैसे अन्तरंगा शक्ति के कार्यकलापों से नहीं आकर्षित होना चाहिए। सस्ते कथावाचक भगवान् की अन्तरंगा शक्ति के विषय में अत्यन्त उत्साह दिखाते हैं और भौतिक सुखोपभोग में मग्न छद्मभक्त गलती से मुक्त जीव की अवस्था पर पहुँचना चाहते हैं और इस प्रकार बहिरंगा शक्ति के चंगुल में बुरी तरह आ फँसते हैं।
इनमें से कुछेक का विचार है कि भगवान् की लीलाओं के श्रवण का अर्थ है गोपियों के साथ उनके कार्यकलाप या गोवर्धन-धारण जैसी लीला के विषय में सुनना। उन्हें भगवान् के पुरुषावतारों जैसे स्वांश विस्तारों से तथा भौतिक जगत की सृष्टि, पालन तथा संहार जैसी लीलाओं से कोई सरोकार नहीं रहता। किन्तु प्रबुद्ध भक्त जानता है कि भगवान् की लीलाओं में, चाहे वह रासलीला हो, चाहे सृष्टि की उत्पत्ति, पालन या संहार, कोई अन्तर नहीं है। अपितु पुरुषावतारों के रूप में भगवान् के कार्यकलापों का वर्णन उन पुरुषों के लिए है, जो बहिरंगा शक्ति के चंगुल में हैं। रासलीला जैसी कथाएँ बद्धजीवों के लिए न होकर मुक्त जीवों के लिए हैं। अत: बद्धजीवों को चाहिए कि बहिरंगा शक्ति के प्रसंग में भगवान् की लीलाओं को भक्ति तथा प्रशंसा के साथ सुनें। यह कार्य मुक्त अवस्था में रासलीला के श्रवण के समान उत्तम है। बद्धजीव को कभी भी मुक्त जीवों के कार्यों की नकल नहीं करनी चाहिए। भगवान् श्री चैतन्य कभी भी सामान्य मनुष्यों के साथ रासलीला नहीं सुनते थे। श्रीमद्भागवत के प्रथम नौ स्कंध दशम स्कंध को सुनने की भूमिका बाँधते हैं। इस स्कन्ध के अन्तिम अध्याय में पुन: इसकी चर्चा की जावेगी। तीसरे स्कन्ध में यह और अधिक स्पष्ट हो सकेगी। अत: भगवान् के शुद्ध भक्त को चाहिए कि वह श्रीमद्भागवत को प्रारम्भ से सुनना प्रारम्भ करे, सीधे दशम स्कन्ध को नहीं। हमसे कई बार कुछ तथाकथित भक्तों ने निवेदन किया है कि हम तुरन्त ही दशम स्कंध को हाथ में लें, किन्तु हम सदैव इससे बचते रहे, क्योंकि हम श्रीमद्भागवत को तत्त्व-ज्ञान के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं, बद्धजीवों के लिए विषयी ज्ञान के रूप में नहीं। श्रीब्रह्माजी जैसे अधिकारियों ने इसके लिए वर्जित किया है। श्रीमद्भागवत को वैज्ञानिक प्रस्तुति के रूप में पढक़र तथा सुनकर बद्धजीव इन्द्रिय-तृप्ति की उत्तरोत्तर माया से मुक्तहोकर दिव्य ज्ञान के उच्चतर पद को प्राप्त हो सकेंगे।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कन्ध के अन्तर्गत “विशिष्ट कार्यों के लिए निर्दिष्ट अवतार” नामक नामक सातवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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