कामं दहन्ति कृतिनो ननु रोषदृष्टया
रोषं दहन्तमुत ते न दहन्त्यसह्यम् ।
सोऽयं यदन्तरमलं प्रविशन् बिभेति
काम: कथं नु पुनरस्य मन: श्रयेत ॥ ७ ॥
शब्दार्थ
कामम्—वासना; दहन्ति—दण्ड देते हैं; कृतिन:—बड़े-बड़े अग्रणी; ननु—लेकिन; रोष-दृष्ट्या—क्रोधपूर्ण चितवन से; रोषम्—क्रोध; दहन्तम्—अभिभूत; उत—यद्यपि; ते—वे; न—नहीं; दहन्ति—वश में करते हैं; असह्यम्—दु:सह; स:—वह; अयम्—उसको; यत्—क्योंकि; अन्तरम्—भीतर; अलम्—फिर भी; प्रविशन्—भीतर जाकर; बिभेति—भयभीत होता है; काम:—वासना से; कथम्—कैसे; नु—वस्तुत:; पुन:—फिर; अस्य—उसका; मन:—मन; श्रयेत—शरण ग्रहण करता है ।.
अनुवाद
शिव जैसे महापुरुष अपनी रोषपूर्ण चितवन से वासना (काम) को जीतकर उसे दण्डित तो कर सकते हैं, किन्तु वे स्वयं अपने क्रोध के अत्यधिक प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकते। ऐसा क्रोध कभी भी उनके (भगवान् के) हृदय में प्रवेश नहीं पाता, क्योंकि वे इससे ऊपर हैं। तो फिर भला उनके मन में वासना को आश्रय कैसे प्राप्त हो सकता है?
तात्पर्य
जब शिवजी कठिन तपस्या में तल्लीन थे तो कामदेव ने अपना काम-बाण उन पर छोड़ा। शिव ने घोर कुपित दृष्टि से कामदेव की ओर देखा तो उसका शरीर तुरन्त भस्म हो गया। शिव इतने शक्तिशाली होते हुए भी क्रोध के प्रभाव से मुक्त न थे। किन्तु भगवान् विष्णु के आचरण में कभी भी क्रोध करने की कोई घटना नहीं पाई जाती। इसके विपरीत, जब भृगु मुनि ने जान बूझकर उनके वक्षस्थल पर चरण-प्रहार किया, तो मुनि पर क्रुद्ध होने के बजाय भगवान् ने यह कहकर क्षमा माँगी कि उनका वक्षस्थल अत्यधिक कठोर है, कहीं मुनि के पाँव में ज्यादा चोट तो नहीं लगी। भगवान् के वक्षस्थल पर अंकित भृगुपाद चिह्न उनकी सहिष्णुता का प्रतीक है। अत: जब भगवान् क्रोध से किसी प्रकार प्रभावित नहीं होते, तो फिर क्रोध से कम शक्तिशाली कामेच्छा के लिए वहाँ किस तरह कोई स्थान हो सकता है? जब काम या इच्छा की पूर्ति नहीं होती तो क्रोध उत्पन्न होता है; अत: जब क्रोध अनुपस्थित हो तो फिर काम कैसे उत्पन्न हो सकता है? भगवान् को आप्तकाम कहा जाता है, क्योंकि वे अपनी इच्छाओं की तुष्टि स्वयं करते हैं। उन्हें अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए किसी की सहायता नहीं चाहिए। भगवान् असीम हैं अत: उनकी इच्छाएँ भी असीम हैं। भगवान् के अतिरिक्त समस्त जीवात्माएँ हर तरह से ससीम हैं, अत: जो ससीम हैं, वे असीम की इच्छाओं की तुष्टि कैसे कर सकते हैं? निष्कर्ष यह निकला कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् में न तो काम है, न क्रोध और यदि कभी उनमें इनका दर्शन हो भी तो इसे परम आशीर्वाद (वरदान) समझना चाहिए।
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