श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 7: विशिष्ट कार्यों के लिए निर्दिष्ट अवतार  »  श्लोक 8
 
 
श्लोक  2.7.8 
विद्ध: सपत्‍न्‍युदितपत्रिभिरन्ति राज्ञो
बालोऽपि सन्नुपगतस्तपसे वनानि ।
तस्मा अदाद् ध्रुवगतिं गृणते प्रसन्नो
दिव्या: स्तुवन्ति मुनयो यदुपर्यधस्तात् ॥ ८ ॥
 
शब्दार्थ
विद्ध:—बिंध कर; सपत्नि—सौतेली माता; उदित—कहे गये; पत्रिभि:—तीखे वचनों से; अन्ति—समक्ष; राज्ञ:—राजा के; बाल:—बालक; अपि—यद्यपि; सन्—ऐसा होते हुए; उपगत:—ग्रहण कर लिया; तपसे—कठोर तपस्या; वनानि—वन में; तस्मै—अत:; अदात्—पुरस्कार रूप में दिया; ध्रुव-गतिम्—ध्रुवलोक का मार्ग; गृणते—प्रार्थना किये जाने पर; प्रसन्न:—प्रसन्न होकर; दिव्या:—उच्चलोक के वासी; स्तुवन्ति—प्रार्थना करते हैं; मुनय:—बड़े-बड़े साधु; यत्—जिससे; उपरि—ऊपर; अधस्तात्—नीचे ।.
 
अनुवाद
 
 राजा की उपस्थिति में सौतली माता के कटु वचनों से अपमानित होकर राजकुमार ध्रुव, बालक होते हुए भी, वन में कठिन तपस्या करने लगे और भगवान् ने उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर उन्हें ध्रुवलोक प्रदान किया जिसकी पूजा ऊपर तथा नीचे के लोकों के सभी मुनि करते हैं।
 
तात्पर्य
 महाराज उत्तानपाद के पुत्र तथा परम भक्त राजकुमार ध्रुव, जब पाँच वर्ष के थे तो वे अपने पिता की गोद में बैठे थे, किन्तु उनकी सौतेली माँ को राजा द्वारा अपने सौतेले पुत्र को इस प्रकार प्यार किया जाना अच्छा नहीं लगा। उसने उन्हें यह कहते हुए खींचकर उतार दिया कि चूँकि वह उसकीकोख से उत्पन्न नहीं है, अत: राजा की गोद में बैठने का अधिकार नहीं है। वह नन्हा बालक अपनी सौतेली माँ के इस व्यवहार से अत्यन्त अपमानित हुआ। उसके पिता ने कोई भी प्रतिवाद नहीं किया, क्योंकि वह अपनी इस दूसरी पत्नी के प्रति अत्यधिक आसक्त था। इस घटना के बाद राजकुमार ध्रुव अपनी माँ के पास गये और शिकायत की। उनकी सगी माँ भी इस अपमानजनक आचरण के प्रति कोई कदम नहीं उठा सकती थीं, इसीलिए वह रोने लगीं। बालक ने माँ से पूछा कि वह किस प्रकार अपने पिता के सिंहासन पर बैठ सकता है। बेचारी माँ ने कहा कि भगवान् ही एकमात्र उसके सहायक हो सकते हैं। बालक ने पूछा कि भगवान् कहाँ मिलेंगे, तो माँ ने कहा कि लोग कहते हैं कि भगवान् मुनियों को कभी-कभी घने वन में दिखते हैं। बालक राजकुमार ने निश्चय किया कि वह अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए जंगल जाकर कठोर तपस्या करेगा।

राजकुमार ध्रुव ने अपने गुरु नारद के आदेशानुसार, जिन्हें भगवान् ने इस कार्य के लिए विशेष तौर पर नियुक्त किया था, कठिन तपस्या की। नारद ने उन्हें अठारह अक्षरों वाले मंत्र के जपने की दीक्षा दी। यह मंत्र है—ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। भगवान् वासुदेव ने स्वयं पृश्निगर्भ नामक चतुर्भुज भगवान् के रूप में अवतरित होकर, राजकुमार को सप्त नक्षत्रों से ऊपर विशिष्ट लोक प्रदान किया। अपनी तपस्या में सफलता प्राप्त कर लेने के बाद राजकुमार ध्रुव को भगवान् के साक्षात् दर्शन हुए। इस प्रकार उनकी सारी कामनाएँ पूरी हो गईं और वे संतुष्ट हो गए।

राजुकमार ध्रुव महाराज को जो लोक मिला वह भगवान् वासुदेव की इच्छा से भौतिक आकाश में स्थित अचल वैकुण्ठ लोक है। इस लोक का, भौतिक संसार में होने के बावजूद भी, प्रलय के समय विनाश नहीं होगा प्रत्युत वह अपने स्थान पर अचल रहेगा। क्योंकि यह कभी न नष्ट होने वाला वैकुण्ठ लोक है, इसलिए न केवल उसके नीचे स्थित सप्त नक्षत्रों के वासी उसकी पूजा करते हैं वरन् जो लोक उससे ऊपर हैं उनके वासी भी वैसा ही करते हैं। महर्षि भृगु का लोक ध्रुव लोक से ऊपर स्थित है। अत: भगवान् ने अपने भक्त की इच्छापूर्ति के लिए पृश्निगर्भ के रूप में अवतार लिया और राजकुमार ध्रुव ने भगवान् के अन्य शुद्ध भक्त नारद से दीक्षा लेकर केवल मंत्र के जप से सिद्धि प्राप्त की। अत: एक शुद्ध भक्त से पथ-प्रदर्शन प्राप्त करके गम्भीर महापुरुष अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। ऐसा पथ-प्रदर्शक हर सम्भव प्रकार से भगवान् से मिलने की दृढ़ इच्छा होने पर स्वत: मिल जाता है।

राजकुमार ध्रुव के कार्यकलापों का वर्णन श्रीमद्भागवत के चतुर्थ स्कंध में पढऩे को मिलेगा।

 
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