राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा कि नारद मुनि ने, जिनके श्रोता श्रीब्रह्मा द्वारा उपदेशित भाग्यशाली श्रोता हैं, किस प्रकार निर्गुण भगवान् के दिव्य गुणों का वर्णन किया और वे किन-किन के समक्ष बोले?
तात्पर्य
देवर्षि नारद को सीधे ब्रह्माजी ने उपेदश दिया था। ब्रह्मा को भी परमेश्वर ने स्वयं उपदेश दिया था; अत: नारद द्वारा विविध शिष्यों को दिये गये उपदेश स्वयं परमेश्वर द्वारा प्रदत्त उपदेशों के तुल्य हैं। वैदिक ज्ञान को समझने की यही विधि है। यह शिष्य-परम्परा द्वारा भगवान् से प्राप्त होकर अवरोही क्रम से सारे विश्व में फैलता है। किन्तु मानसिक चिन्तकों से वैदिक ज्ञान प्राप्त करने का अवसर ही नहीं आता। अत: नारद मुनि जहाँ कहीं भी जाते हैं, ईश्वर का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनका प्राकट्य परमेश्वर के ही समान उत्तम होता है। इसी प्रकार जो शिष्य-परम्परा दिव्य उपदेश का कड़ाई से अनुसरण करती है, वही प्रामाणिक होती है और इन प्रामाणिक गुरुओं की परीक्षा यह है कि प्रारम्भ में भगवान् ने अपने भक्तों को जो उपदेश दिया था और अब शिष्य-परम्परा में जो उपदेश दिया जाता है उसमें कोई अन्तर नहीं होना चाहिए। नारद मुनि ने भगवान् के दिव्य ज्ञान को जिस प्रकार वितरित किया उसका वर्णन बाद के स्कन्धों में किया जाएगा।
ऐसा भी प्रतीत हो सकता है कि भौतिक सृष्टि के पूर्व भी भगवान् का अस्तित्व था; फलत: उनके दिव्य नाम, गुण इत्यादि किसी भौतिक गुण को सूचित करने वाले नहीं हैं। अत: जब भी भगवान् को अगुण कहा जाता है, तो इसका अभिप्राय यह नहीं होता कि वे गुणरहित हैं वरन् यह कि उनमें सतो, रजो या तमोगुण जैसे भौतिक गुण नहीं पाये जाते जो बद्धजीवों में पाये जाते हैं। समस्त भौतिक अवधारणाओं से परे होने के कारण ही उन्हें अगुण कहा जाता है।
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