श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 8: राजा परीक्षित द्वारा पूछे गये प्रश्न  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  2.8.10 
स चापि यत्र पुरुषो विश्वस्थित्युद्भवाप्यय: ।
मुक्त्वात्ममायां मायेश: शेते सर्वगुहाशय: ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह; च—भी; अपि—जैसाकि वह है; यत्र—जहाँ; पुरुष:—भगवान्; विश्व—संसार; स्थिति—पालन; उद्भव—सृष्टि; अप्यय:—संहार; मुक्त्वा—बिना स्पर्श किये; आत्म-मायाम्—अपनी शक्ति; माया-ईश:—समस्त शक्तियों का स्वामी; शेते— शयन करता है; सर्व-गुहा-शय:—प्रत्येक हृदय में स्थित रहने वाला ।.
 
अनुवाद
 
 कृपया उन भगवान् के विषय में भी बताएँ जो प्रत्येक हृदय में परमात्मा और समस्त शक्तियों के स्वामी के रूप में स्थित हैं, किन्तु जिनकी बहिरंगा शक्ति उनका स्पर्श तक नहीं कर पाती।
 
तात्पर्य
 निश्चित रूप से, ब्रह्मा ने भगवान् के जिस रूप को देखा था वह दिव्य रहा होगा, अन्यथा वे बिना स्पर्श किये सृजनात्मक शक्ति पर किस प्रकार निर्भर रहे होते? ऐसा ज्ञात है कि वही पुरुष प्रत्येक जीवात्मा के हृदय में स्थित है। इसकी भी समुचित व्याख्या होनी चाहिए।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥