श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 8: राजा परीक्षित द्वारा पूछे गये प्रश्न  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  2.8.16 
प्रमाणमण्डकोशस्य बाह्याभ्यन्तरभेदत: ।
महतां चानुचरितं वर्णाश्रमविनिश्चय: ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
प्रमाणम्—विस्तार तथा माप; अण्ड-कोशस्य—ब्रह्माण्ड का; बाह्य—बाहरी अवकाश; अभ्यन्तर—आन्तरिक अवकाश; भेदत:—के विभाग में; महताम्—महापुरुषों का; च—भी; अनुचरितम्—चरित्र तथा कार्य; वर्ण—जातियाँ; आश्रम—जीवन के चार आश्रम; विनिश्चय:—विशेष रूप से वर्णन करें ।.
 
अनुवाद
 
 साथ ही कृपा करके ब्रह्माण्ड के बाहरी तथा भीतरी विशिष्ट विभागों, महापुरुषों के चरित्र तथा कार्यों और विभिन्न वर्णों एवं जीवन के चारों आश्रमों के वर्णीकरण का भी वर्णन करें।
 
तात्पर्य
 महाराज परीक्षित भगवान् श्रीकृष्ण के विलक्षण भक्त हैं, अत: वे भगवान् की सृष्टि की सम्पूर्ण महत्ता को जानने के इच्छुक हैं। वे ब्रह्माण्ड के आन्तरिक तथा बाहरी अवकाश के विषय में जानना चाहते हैं। ज्ञान के वास्तविक खोजी के लिए इस विषय में पूरी तरह जानना सर्वथा उपयुक्त है। जिनका यह मत है कि भगवद्भक्त मात्र भावनाओं से सन्तुष्ट हो जाते हैं, वे महाराज परीक्षित की जिज्ञासाओं से यह देख सकते हैं कि विशुद्ध भक्त वस्तुओं को पूरी तरह जानने के लिए कितने उत्सुक रहते हैं। आधुनिक विज्ञानी जब ब्रह्माण्ड-अन्तरिक्ष के आन्तरिक अवकाश के विषय में जान पाने में अक्षम हैं, तो फिर ब्रह्माण्ड को आच्छादित करने वाले अन्तरिक्ष (अवकाश) के विषय में क्या कहा जा सकता है? महाराज परीक्षित मात्र भौतिक ज्ञान से तुष्ट होने वाले नहीं हैं। वे भगवद्-भक्तों या महापुरुषों के चरित्र तथा कार्यों के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट करते हैं। भगवान् की महिमा तथा उनके भक्तों की महिमा से मिलकर श्रीमद्भागवत का पूर्ण ज्ञान बना है। श्रीकृष्ण ने अपनी माँ को अपने मुख के भीतर सारा ब्रह्माण्ड दिखलाया, किन्तु उनकी माँ अपने पुत्र-प्रेम से पूर्ण रूप से मुग्ध होने के कारण यह देखना चाह रही थीं कि उन्होंने मुँह के भीतर कितनी मिट्टी खाई है। किन्तु भगवत्कृपा से भक्त लोग भगवान् के मुख के भीतर ही ब्रह्माण्ड की सारी वस्तुएँ देखने में सक्षम होते हैं।

मानव समाज का चार वर्णों तथा चार आश्रमों में जैसा वैज्ञानिक विभाजन हुआ, उसके सम्बन्ध में भी यहाँ पर वैयक्तिक गुणत्व के आधार पर जिज्ञासा व्यक्त की गई है। ये चार विभाग मनुष्य के निजी शरीर के चार भागों के ही समान हैं। शरीर के अंग शरीर से अभिन्न होकर भी स्वयं में अंग मात्र होते हैं। चारों वर्णों तथा चारों आश्रमों की वैज्ञानिक प्रणाली की यही विशिष्टता है। मानव समाज के ऐसे वैज्ञानिक विभाजन की महत्ता भगवान् की भक्ति के आनुपातिक विकास द्वारा आँकी जा सकती है। सरकारी नौकरी में रत कोई भी व्यक्ति, जिसमें राष्ट्रपति भी सम्मिलित है, सम्पूर्ण सरकार का अंग होता है। प्रत्येक व्यक्ति सरकारी कर्मचारी है, किन्तु इनमें से कोई भी सरकार नहीं है। परमेश्वर के राज्य में जीवात्माओं की ठीक यही स्थिति है। कोई भी व्यक्ति कृत्रिम रूप से भगवान् के परमपद का अधिकारी नहीं बन सकता, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर की सेवा के निमित्त है।

 
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