युगानि युगमानं च धर्मो यश्च युगे युगे ।
अवतारानुचरितं यदाश्चर्यतमं हरे: ॥ १७ ॥
शब्दार्थ
युगानि—विभिन्न युग; युग-मानम्—प्रत्येक युग की अवधि; च—भी; धर्म:—विशिष्ट कार्य; य: च—तथा जो; युगे युगे— प्रत्येक युग में; अवतार—अवतार; अनुचरितम्—तथा अवतार के कार्य; यत्—जो; आश्चर्यतमम्—सर्वाधिक अद्भुत कार्य; हरे:—परमेश्वर का ।.
अनुवाद
कृपा करके सृष्टि के विभिन्न युगों तथा उन सबकी अवधियों का वर्णन कीजिये। मुझे विभिन्न युगों में भगवान् के विभिन्न अवतारों के कार्य-कलापों के विषय में भी बताइये।
तात्पर्य
भगवान् श्रीकृष्ण आदि भगवान् हैं और परमेश्वर के समस्त अवतार उनसे अभिन्न होते हुए भी उन्हीं से उद्भूत हैं। महाराज परीक्षित ने परम विद्वान एवं महामुनि शुकदेव गोस्वामी से ऐसे अवतारों के कार्यकलापों के विषय में पूछा जिससे भगवान् के अवतार की पुष्टि प्रामाणिक शास्त्रों में उल्लिखित उनके कार्यकलापों के आधार पर की जा सके। महाराज परीक्षित सामान्य मनुष्य की विचारधारा में बहकर भगवान् के अवतार को आसानी से स्वीकार करने वाले जीव न थे, अपितु वे वैदिक साहित्य में वर्णित और श्रील शुकदेव गोस्वामी जैसे आचार्य द्वारा पुष्ट लक्षणों के आधार पर ही उसे स्वीकार करना चाहते थे। भगवान् अपनी अन्तरंगा शक्ति से प्राकृतिक नियमों की किसी अनिवार्यता के बिना अवतरित होते हैं; फलत: उनके कार्यकलाप भी असामान्य होते हैं। भगवान् के विशिष्ट कार्यकलाप उल्लिखित हैं और हमें यह जान लेना होगा कि भगवान् के कार्यकलाप तथा स्वयं भगवान् एक हैं क्योंकि वे परम स्तर पर स्थित हैं। अत: भगवान् के कार्यकलापों के विषय में सुनने का अर्थ है भगवान् की प्रत्यक्ष संगति करना और भगवान् की प्रत्यक्ष संगति का अर्थ है भौतिक कल्मष से शुद्धि। इसकी विवेचना हम पिछले खण्ड में कर चुके हैं।
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