श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 8: राजा परीक्षित द्वारा पूछे गये प्रश्न  »  श्लोक 18
 
 
श्लोक  2.8.18 
नृणां साधारणो धर्म: सविशेषश्च याद‍ृश: ।
श्रेणीनां राजर्षीणां च धर्म: कृच्छ्रेषु जीवताम् ॥ १८ ॥
 
शब्दार्थ
नृणाम्—मानव समाज का; साधारण:—सामान्य; धर्म:—धार्मिक सम्पर्क-सूत्र; स-विशेष:—विशिष्ट; च—भी; यादृश:—वे जिस प्रकार से हैं; श्रेणीनाम्—तीन वर्णों के; राजर्षीणाम्—राजर्षि का; च—भी; धर्म:—धर्म; कृच्छ्रेषु—दुखी अवस्था (विपत्ति) में; जीवताम्—जीवों का ।.
 
अनुवाद
 
 कृपा करके यह भी बताइये कि मानव समाज के सामान्य धार्मिक सम्पर्क सूत्र क्या हों, धर्म में उनके विशिष्ट कर्तव्य क्या हों, सामाजिक व्यवस्था तथा प्रशासकीय राजकीय व्यवस्था का वर्गीकरण तथा विपत्तिग्रस्त मनुष्य का धर्म क्या हो?
 
तात्पर्य
 मनुष्यों की सभी श्रेणियों का, चाहे वे कोई या कुछ भी हों, सामान्य धर्म भक्तिमय सेवा है। यहाँ तक कि भगवद्भक्ति में पशुओं को भी सम्मिलित किया जा सकता है और इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण भगवान् श्रीराम के भक्त बजरंगबली या हनुमान जी द्वारा प्रस्तुत हुआ है। हम पहले ही कह चुके हैं कि यदि भगवान् के असली भक्त का पथ प्रदर्शन प्राप्त हो, तो आदिवासी तथा मानवभक्षी लोग भी भगवान् की भक्ति में लग सकते हैं। स्कन्द पुराण में एक कथा है कि एक बहेलिया श्री नारदमुनि के प्रभाव से किस प्रकार भगवान् का भक्त बन गया। अत: भगवद्भक्ति प्रत्येक जीव द्वारा समान रूप से भोग्य है।

विभिन्न देशों में विभिन्न सांस्कृतिक परिस्थितियों में जो धार्मिक लगाव होता है, वह स्पष्टत: मानव का सामान्य धर्म नहीं हैं, अपितु मूल सिद्धान्त भक्तिमय सेवा है। यदि कोई धर्म परमेश्वर की श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं भी करता तो भी किसी विशेष नेता द्वारा निर्दिष्ट आनुशासनिक नियमों का पालन करना होता है। धार्मिक सम्प्रदाय का ऐसा नेता कभी भी सर्वश्रेष्ठ नहीं होता, क्योंकि ऐसा नेता अपने पद पर किसी तपस्या के माध्यम से आता है। किन्तु नेता बनने के लिए भगवान् को ऐसे आनुशासनिक कार्य नहीं करने पड़ते जैसाकि हम भगवान् श्रीकृष्ण के क्रिया-कलापों में देखते हैं।

समाज की जातियों तथा आश्रमों के कर्तव्य जीविका के नियमों पर आधारित होते हुए भक्ति सिद्धान्तों पर भी निर्भर करते हैं। भगवद्गीता में कहा गया है कि मनुष्य अपने कर्मों के फल को भगवान् की भक्ति में अर्पित करने मात्र से जीवन की परम सिद्धि प्राप्त कर सकता है। भगवान् की भक्ति करने वाला कभी कष्ट नहीं भोगता, अत: आपद-धर्म का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। जैसाकि परम अधिकारी श्रील शुकदेव गोस्वामी द्वारा इस ग्रन्थ में बताया जाएगा, भगवद्भक्ति के अतिरिक्त कोई अन्य धर्म नहीं है, भले ही वह विभिन्न रूपों में प्रकट क्यों न हो।

 
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