मनुष्यों की सभी श्रेणियों का, चाहे वे कोई या कुछ भी हों, सामान्य धर्म भक्तिमय सेवा है। यहाँ तक कि भगवद्भक्ति में पशुओं को भी सम्मिलित किया जा सकता है और इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण भगवान् श्रीराम के भक्त बजरंगबली या हनुमान जी द्वारा प्रस्तुत हुआ है। हम पहले ही कह चुके हैं कि यदि भगवान् के असली भक्त का पथ प्रदर्शन प्राप्त हो, तो आदिवासी तथा मानवभक्षी लोग भी भगवान् की भक्ति में लग सकते हैं। स्कन्द पुराण में एक कथा है कि एक बहेलिया श्री नारदमुनि के प्रभाव से किस प्रकार भगवान् का भक्त बन गया। अत: भगवद्भक्ति प्रत्येक जीव द्वारा समान रूप से भोग्य है। विभिन्न देशों में विभिन्न सांस्कृतिक परिस्थितियों में जो धार्मिक लगाव होता है, वह स्पष्टत: मानव का सामान्य धर्म नहीं हैं, अपितु मूल सिद्धान्त भक्तिमय सेवा है। यदि कोई धर्म परमेश्वर की श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं भी करता तो भी किसी विशेष नेता द्वारा निर्दिष्ट आनुशासनिक नियमों का पालन करना होता है। धार्मिक सम्प्रदाय का ऐसा नेता कभी भी सर्वश्रेष्ठ नहीं होता, क्योंकि ऐसा नेता अपने पद पर किसी तपस्या के माध्यम से आता है। किन्तु नेता बनने के लिए भगवान् को ऐसे आनुशासनिक कार्य नहीं करने पड़ते जैसाकि हम भगवान् श्रीकृष्ण के क्रिया-कलापों में देखते हैं।
समाज की जातियों तथा आश्रमों के कर्तव्य जीविका के नियमों पर आधारित होते हुए भक्ति सिद्धान्तों पर भी निर्भर करते हैं। भगवद्गीता में कहा गया है कि मनुष्य अपने कर्मों के फल को भगवान् की भक्ति में अर्पित करने मात्र से जीवन की परम सिद्धि प्राप्त कर सकता है। भगवान् की भक्ति करने वाला कभी कष्ट नहीं भोगता, अत: आपद-धर्म का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। जैसाकि परम अधिकारी श्रील शुकदेव गोस्वामी द्वारा इस ग्रन्थ में बताया जाएगा, भगवद्भक्ति के अतिरिक्त कोई अन्य धर्म नहीं है, भले ही वह विभिन्न रूपों में प्रकट क्यों न हो।