श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 8: राजा परीक्षित द्वारा पूछे गये प्रश्न  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  2.8.2 
एतद् वेदितुमिच्छामि तत्त्वं तत्त्वविदां वर ।
हरेरद्भुतवीर्यस्य कथा लोकसुमङ्गला: ॥ २ ॥
 
शब्दार्थ
एतत्—यह; वेदितुम्—जानने के लिए; इच्छामि—इच्छा करता हूँ; तत्त्वम्—सच्चाई; तत्त्व-विदाम्—तत्त्वविदों का; वर—हे श्रेष्ठ; हरे:—भगवान् का; अद्भुत-वीर्यस्य—अद्भुत शक्तिसम्पन्न की; कथा:—कथा; लोक—समस्त लोकों के लिए; सु- मङ्गला:—शुभ, कल्याणकर ।.
 
अनुवाद
 
 राजा ने कहा : मैं जानने का इच्छुक हूँ। अद्भुत शक्तियों से सम्पन्न भगवान् से सम्बन्धित कथाएँ निश्चय ही समस्त लोकों के प्राणियों के लिए शुभ हैं।
 
तात्पर्य
 श्रीमद्भागवत परमेश्वर की लीलाओं के वर्णनों से भरा पड़ा है और प्रत्येक लोक में निवास करने वाले जीवों के लिए मंगलकारी है। जो इसे सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्धित मान बैठता है, वह निश्चित रूप से भ्रम में रहता है। श्रीमद्भागवत भगवान् के समस्त भक्तों के लिए अत्यन्त प्रिय शास्त्र है, लेकिन अभक्तों के लिए भी यह कल्याणप्रद है, क्योंकि इसके अनुसार भौतिक शक्ति के चक्कर में पड़े हुए अभक्त लोग भी चंगुल से छूट जाते हैं यदि वे श्रद्धा तथा मनोयोग से शिष्य-परम्परा के समुचित स्रोत से श्रीमद्भागवत की कथा को सुनते हैं।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥