सम्प्लव: सर्वभूतानां विक्रम: प्रतिसंक्रम: ।
इष्टापूर्तस्य काम्यानां त्रिवर्गस्य च यो विधि: ॥ २१ ॥
शब्दार्थ
सम्प्लव:—पूर्ण विनाश, सम्यक साधन; सर्व-भूतानाम्—समस्त जीवों का; विक्रम:—विशिष्ट शक्ति या स्थिति; प्रतिसङ्क्रम:—चरम विनाश; इष्टा—वैदिक अनुष्ठानों का सम्पन्न किया जाना; पूर्तस्य—धर्म के पवित्र कार्य; काम्यानाम्— आर्थिक विकास के हेतु अनुष्ठान; त्रि-वर्गस्य—धर्म, अर्थ तथा काम ये तीन साधन; च—भी; य:—जो भी; विधि:—विधियाँ ।.
अनुवाद
कृपा करके मुझे बताइये कि जीवों की उत्पत्ति, पालन और उनका संहार किस प्रकार होता है? भगवान् की भक्तिमय सेवा करने से जो लाभ तथा हानियाँ होती हैं, उन्हें भी समझाइये। वैदिक अनुष्ठान तथा उपवैदिक धार्मिक कृत्यों के आदेश क्या हैं? धर्म, अर्थ तथा काम के साधनों की विधियाँ क्या हैं?
तात्पर्य
सम्प्लव: “सम्यक साधन” के अर्थ में भक्ति करने के लिए प्रयुक्त होता है जब कि प्रतिसम्प्लव: इसके बिल्कुल विपरीत है और भक्ति की प्रगति को विनष्ट करने वाले का द्योतक है। जो व्यक्ति भगवान की भक्तिमय सेवा में दृढ़तापूर्वक स्थित है, वह सरलतापूर्वक बद्ध जीवन बिता सकता है। बद्ध जीवन-बिताना समुद्र के बीच में नाव के खेने जैसा है। इसमें मनुष्य को समुद्र की कृपा पर आश्रित रहना पड़ता है, क्योंकि किसी भी क्षण, थोड़े से विक्षोभ से, नाव डूब सकती है। हाँ, यदि मौसम अच्छा रहा तो निस्संदेह नाव सरलता से चलती रहती है, किन्तु यदि थोड़ा भी तूफान, कुहरा, झंझा या बादल रहा, तो नाव किसी भी क्षण डूब सकती है। कोई कितना ही साधनसम्पन्न क्यों न हो, वह समुद्र की तरंग को नियन्त्रित नहीं कर सकता। जिन्होंने जलयानों के द्वारा समुद्र पार किया है उन्हें समुद्र की कृपा पर निर्भर रहने का पर्याप्त अनुभव होगा। किन्तु भगवत्कृपा से भवसागर को बिना झंझा या कुहरे के भय के सरलता से पार किया जा सकता है। यह सब भगवान् की इच्छा पर निर्भर करता है; यदि बद्ध जीवन में कोई दुर्भाग्यपूर्ण खतरा उत्पन्न हो जाए तो कोई कुछ नहीं कर सकता। किन्तु भगवान् के भक्त भव-सागर को चिन्तारहित होकर पार कर लेते हैं, क्योंकि भगवान् उनकी सदैव रक्षा करता है (भगवद्गीता ९.१३)। भगवान् अपने भक्तों के भौतिक बद्ध जीवन के कार्यकलापों की ओर विशेष ध्यान देते हैं (भगवद्गीता ९.२९)। अत: प्रत्येक व्यक्ति को भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण करनी चाहिए और सब तरह से शुद्ध भक्त बनना चाहिए।
अत: मनुष्यों को सक्षम गुरु से उसी प्रकार यह जानना चाहिए कि भक्ति करने से क्या-क्या लाभ तथा हानियाँ हैं, जिस प्रकार श्रील शुकदेव गोस्वामी से महाराज परीक्षित ने पूछा था। भक्ति रसामृत सिन्धु के अनुसार मनुष्य को चाहिए कि शरीर तथा आत्मा के पोषण के लिए जितने भोजन की आवश्यकता हो, उतना ही खाए। मानव शरीर के निर्वाह के लिए दूध तथा शाकाहार पर्याप्त है, अत: स्वाद की पूर्ति हेतु इससे अधिक कुछ खाने की कोई आवश्यकता नहीं है। भौतिक जगत में अपने को बड़ा दिखाने के लिए धन का संग्रह नहीं करना चाहिए। ईमानदारी के साथ अपनी जीविका सुगमता से चलानी चाहिए, क्योंकि जोड़-तोड़ से समाज में बड़ा आदमी बनने की अपेक्षा ईमानदारी से कुली बन कर रहना श्रेयस्कर है। यदि कोई ईमानदारी से विश्व का सबसे बड़ा धनी पुरुष बनता है, तो कोई हर्ज नहीं, किन्तु केवल धन संग्रह के लिए जीविका कमाते समय ईमान बेचना उचित नहीं। इस प्रकार का प्रयत्न भक्ति में बाधक है। मनुष्य को ऊल-जुलूल नहीं बोलना चाहिए (प्रलाप नहीं करना चाहिए)। भक्त का कार्य तो भगवान् की कृपा प्राप्त करना है। अत: भक्त को सदैव ईश्वर की अद्भुत सृष्टि के लिए उनकी महिमा का वर्णन करना चाहिए। भक्त को ईश्वर की सृष्टि को यह कह कर नहीं नकारना चाहिए कि यह संसार झूठा (असत्य) है। यह संसार असत्य नहीं है। वस्तुत: हमें अपने पालन के लिए इस संसार से अनेक वस्तुएँ ग्रहण करनी होती हैं, अत: हम यह कैसे कह सकते हैं कि यह संसार असत्य है? इसी प्रकार हम यह कैसे कह सकते हैं कि ईश्वर का कोई रूप नहीं है? भला कोई निर्विशेष होकर समस्त बुद्धि तथा चेतना से किस प्रकार युक्त हो सकता है? अत: शुद्ध भक्त के जानने के लिए अनेक बातें हैं और उन्हें शुकदेव गोस्वामी जैसे प्रामाणिक महापुरुष से सीखना चाहिए। भक्तिमय सेवा करने के लिए उपयुक्त परिस्थिति यही है कि ईश्वर की सेवा अत्यन्त उत्साह के साथ की जाय। भगवान् ने अपने श्री चैतन्य महाप्रभु रूप में यह चाहा है कि सारे संसार के कोने-कोने में भक्ति-सम्प्रदाय का प्रचार किया जाय; अत: शुद्ध भक्त का परम कर्तव्य है कि जहाँ तक सम्भव हो, वह इस आदेश को पूरा करे। प्रत्येक भक्त को न केवल दैनिक भक्ति-अनुष्ठानों के प्रति उत्साह होना चाहिए, अपितु भगवान् चैतन्य के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए सम्प्रदाय का शान्तिपूर्वक प्रचार करना चाहिए। यदि उसे ऊपरी तौर पर इसमें सफलता नहीं मिलती तो उसे अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिए। शुद्ध भक्त के लिए सफलता-असफलता का कोई अर्थ नहीं होता, क्योंकि वह युद्ध-भूमि में सैनिक के समान होता है। भक्तिमय सेवा की विचारधारा का प्रचार ठीक कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे कि भौतिक जीवन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करना। भौतिकतावादी कई प्रकार के हैं—यथा सकामकर्मी, ज्ञानी, चमत्कारी योगी इत्यादि जैसे और भी। वे सभी ईश्वर के अस्तित्व के विरोधी हैं। वे अपने को ही ईश्वर घोषित करते हैं, भले ही वे पग-पग पर प्रत्येक कार्य के लिए ईश्वर की कृपा पर आश्रित क्यों न रहें। अत: शुद्ध भक्त को चाहिए कि इन नास्तिकों के गिरोहों का साथ न दे। भगवान् का सबल भक्त अभक्तों के ऐसे नास्तिकतावादी प्रचार से कभी गुमराह नहीं होता, किन्तु नवदीक्षित भक्त को इनसे बहुत सतर्क रहना चाहिए। भक्त को, प्रामाणिक गुरु के पथप्रदर्शन में ठीक से भक्ति करनी चाहिए, मात्र औपचारिकताओं से नहीं चिपके रहना चाहिए। प्रामाणिक गुरु के निर्देशन में यह देखना चाहिए कि कितनी भक्तिमय सेवा की जा रही है, मात्र अनुष्ठान के सम्बन्ध में नहीं। भक्त को किसी वस्तु के पीछे नहीं दौडऩा चाहिए वरन् भगवान् की इच्छा से जो प्राप्त हो उसी से सन्तुष्ट रहना चाहिए। भक्तिमय जीवन का यही सिद्धान्त होना चाहिए। ऐसे सभी सिद्धान्त शुकदेव गोस्वामी जैसे गुरु के निर्देशन में सरलता से सीखे जा सकते हैं। महाराज परीक्षित ने शुकदेव जी से ठीक ही पूछा और मनुष्य को उनके इस उदाहरण का अनुकरण करना चाहिए।
महाराज परीक्षित ने संसार की उत्पत्ति, पालन तथा संहार, वैदिक अनुष्ठानों की विधि तथा पुराणों एवं महाभारत जैसे उपवेदों में वर्णित पवित्र कार्यों के करने की विधि के विषय में पूछा। जैसे कि पहले व्याख्या की जा चुकी है, महाभारत प्राचीन भारत का इतिहास है और पुराण भी वैसे ही हैं। पुण्यकार्यों का उल्लेख उपवेदों (स्मृतियों) में हुआ है और इनमें सामान्य जनता को जल उपलब्ध कराने के लिए तालाब तथा कुएँ खोदने जैसे कार्य सम्मिलित हैं। सडक़ों के किनारे वृक्ष लगाना, मन्दिर तथा ईश्वर की पूजा के स्थल बनवाना, निर्धनों को अन्न देने के लिए दान-केन्द्र खोलना तथा इसी प्रकार के अन्य कार्य पूर्त कहलाते हैं।
इसी प्रकार राजा ने सभी के लाभ और इन्द्रियतुष्टि के लिए प्राकृतिक इच्छाओं की पूर्ति की विधि के विषय में जानने की भी जिज्ञासा प्रकट की।
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