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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 8: राजा परीक्षित द्वारा पूछे गये प्रश्न  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  2.8.27 
सूत उवाच
स उपामन्त्रितो राज्ञा कथायामिति सत्पते: ।
ब्रह्मरातो भृशं प्रीतो विष्णुरातेन संसदि ॥ २७ ॥
 
शब्दार्थ
सूत: उवाच—श्रील सूत गोस्वामी ने कहा; स:—वह (शुकदेव गोस्वामी); उपामन्त्रित:—इस प्रकार पूछे जाने पर; राज्ञा—राजा द्वारा; कथायाम्—कथाओं में; इति—इस प्रकार; सत्-पते:—सर्वोच्च सत्य की; ब्रह्म-रात:—शुकदेव गोस्वामी; भृशम्— अत्यधिक; प्रीत:—प्रसन्न; विष्णु-रातेन—महाराज परीक्षित द्वारा; संसदि—सभा में ।.
 
अनुवाद
 
 सूत गोस्वामी ने कहा—महाराज परीक्षित द्वारा भक्तों से संबंधित भगवान् श्रीकृष्ण की कथाएँ कहने के लिए आमन्त्रित किये जाने पर शुकदेव गोस्वामी अत्यधिक प्रसन्न हुए।
 
तात्पर्य
 नियमानुसार श्रीमद्भागवत की चर्चा केवल भगवद्भक्तों के बीच ही की जा सकती है। जिस प्रकार भगवद्गीता की आधिकारिक व्याख्या श्रीकृष्ण तथा अर्जुन (क्रमश: भगवान् तथा भक्त) के बीच हुई उसी प्रकार श्रीमद्भागवत, जो भगवद्गीता का स्नातकोत्तर अध्ययन है, की व्याख्या शुकदेव गोस्वामी तथा महाराज परीक्षित जैसे विद्वानों तथा भक्तों के बीच हो सकती है। अन्यथा अमृत का वास्तविक स्वाद नहीं चखा जा सकता। शुकदेव गोस्वामी महाराज परीक्षित से प्रसन्न थे, क्योंकि वे भगवान् की कथाएँ सुनने से तनिक भी नहीं ऊबे थे, अपितु वे उन्हें रुचिपूर्वक अधिकाधिक सुनना चाह रहे थे। मूर्ख व्याख्याकार वृथा ही भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में अपना हाथ लगाते हैं, जबकि इन विषयों तक उनकी पैठ नहीं है। अभक्तों को इन दोनों सर्वश्रेष्ठ वैदिक ग्रन्थों में दखल देने से कोई लाभ नहीं मिलेगा, अत: शंकराचार्य ने श्रीमद्भागवत का भाष्य करने में हाथ नहीं लगाया। श्रीपाद शंकराचार्य ने, अपने भगवद्गीता के भाष्य में, श्रीकृष्ण को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के रूप में स्वीकार किया है, किन्तु बाद में उन्होंने निर्विशेषवादी दृष्टि से टीका की है। किन्तु अपनी स्थिति से अवगत होते हुए उन्होंने श्रीमद्भागवत की टीका नहीं की।

श्रील शुकदेव गोस्वामी को श्रीकृष्ण का प्रश्रय प्राप्त था (देखें ब्रह्मवैवर्त पुराण) इसीलिए उन्हें ब्रह्मरात कहा गया है। श्रीमान् परीक्षित महाराज को विष्णुरात कहा जाता है, क्योंकि उन्हें भगवान् विष्णु का संरक्षण प्राप्त था। भगवद्भक्त के रूप में वे भगवान् द्वारा सदैव संरक्षित रहते हैं। इस सम्बन्ध में यह भी स्पष्ट है कि विष्णुरात को और किसी से न सुनकर ब्रह्मरात से ही श्रीमद्भागवत सुननी चाहिए, क्योंकि अन्य लोग दिव्य ज्ञान को ठीक से प्रस्तुत नहीं करते और इस तरह मूल्यवान समय को नष्ट करते हैं।

 
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