शृण्वत: श्रद्धया नित्यं गृणतश्च स्वचेष्टितम् ।
कालेन नातिदीर्घेण भगवान् विशते हृदि ॥ ४ ॥
शब्दार्थ
शृण्वत:—सुनने वालों का; श्रद्धया—श्रद्धापूर्वक; नित्यम्—नियमित रूप से सदैव; गृणत:—ग्रहण करते हुए; च—भी; स्व- चेष्टितम्—अपने प्रयास से गम्भीरतापूर्वक; कालेन—अवधि; न—नहीं; अति-दीर्घेण—अत्यन्त दीर्घकाल; भगवान्— श्रीभगवान्; विशते—प्रकट होते हैं; हृदि—हृदय में ।.
अनुवाद
जो लोग नियमित रूप से श्रीमद्भागवत सुनते हैं और इसे अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक ग्रहण करते हैं, उनके हृदय में अल्प समय में ही भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो जाते हैं।
तात्पर्य
सस्ते भक्त या भौतिकतावाद में ग्रस्त भक्त आवश्यक योग्यताएँ न होते हुए भी भगवान् को साक्षात् देखने के लिए बहुत अधिक लालयित रहते हैं। ऐसे निम्नकोटि के भक्तों को यह जान लेना चाहिए कि भौतिक आसक्ति तथा भगवान् का साक्षात्कार एकसाथ नहीं रह सकते। यह ऐसी यान्त्रिक प्रकिया नहीं है कि परमेश्वरभागवत-वाचक निम्नकोटि के भौतिकतावादी छद्म भक्तों के लिए यह कार्य कर सकें। ये पेशेवर लोग ऐसा करने में अक्षम हैं, क्योंकि न तो उन्हें आत्म-साक्षात्कार हुआ रहता है और न ही श्रोताओं की मुक्ति में उनकी कोई अभि रुचि होती है। वे तो अपनी गृहस्थी बनाये रखकर अपने पेशे से कुछ भौतिक लाभ उठाने में रुचि रखते हैं। महाराज परीक्षित को केवल सात दिन जीवित रहना था, किन्तु दूसरों के हित में वे स्वत: बताते हैं कि लोग श्रीमद्भागवत को नित्य अपने प्रयास से तथा भक्तिपूर्वक सुनें। इससे हृदय के भीतर श्रीकृष्ण का शीघ्र दर्शन करने में उन्हें सहायता मिलेगी। किन्तु छद्म-भक्त अपनी सनक के अनुसार भगवान् का दर्शन करने का बहुत इच्छुक रहता है। वह श्रीमद्भागवत को नित्य सुनने के लिए न तो कोई प्रयास करता है और न ही भौतिक लाभ की इच्छा से विरक्त हो पाता है। यह महाराज परीक्षित जैसे अधिकारी द्वारा संस्तुत विधि नहीं है जिन्होंने श्रीमद्भागवत सुनकर उससे लाभ उठाया।
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