श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 8: राजा परीक्षित द्वारा पूछे गये प्रश्न  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  2.8.5 
प्रविष्ट: कर्णरन्ध्रेण स्वानां भावसरोरुहम् ।
धुनोति शमलं कृष्ण: सलिलस्य यथा शरत् ॥ ५ ॥
 
शब्दार्थ
प्रविष्ट:—इस प्रकार प्रवेश करके; कर्ण-रन्ध्रेण—कान के छिद्रों से; स्वानाम्—अपनी मुक्त स्थिति के अनुसार; भाव— स्वाभाविक सम्बन्ध; सर:-रुहम्—कमल का फूल; धुनोति—निर्मल करता है; शमलम्—काम, क्रोध ईर्ष्या तथा गर्व जैसे गुण को; कृष्ण:—भगवान् श्रीकृष्ण; सलिलस्य—जलाशय का; यथा—जिस प्रकार; शरत्—शरद ऋतु ।.
 
अनुवाद
 
 परमात्मा रूप भगवान् श्रीकृष्ण का शब्दावतार (अर्थात् श्रीमद्भागवत) स्वरूप-सिद्ध भक्त के हृदय में प्रवेश करता है, उसके भावात्मक सम्बन्ध रूपी कमल-पुष्प पर आसीन हो जाता है और इस प्रकार काम, क्रोध तथा लोभ जैसी भौतिक संगति की धूल को धो ड़ालता है। इस प्रकार यह गँदले जल के तालाबों में शरद ऋतु की वर्षा के समान कार्य करता है।
 
तात्पर्य
 कहा जाता है कि भगवान् का एक अकेला शुद्ध भक्त संसार के समस्त पतितों को उबार सकता है। अत: जिसे नारद या शुकदेव गोस्वामी जैसे शुद्ध भक्त का विश्वास प्राप्त है और जो अपने गुरु से शक्ति प्राप्त करता है, जिस प्रकार नारद ने ब्रह्माजी से प्राप्त की थी, वह न केवल स्वयं को माया के चंगुल से छुड़ाता है वरन् अपनी शुद्ध तथा शक्तिसम्पन्न भक्ति की शक्ति से सारे संसार को उबार सकता है। गँदले जलाशयों में गिरने वाली शारदीय वर्षा से उपमा देना अत्यन्त उपयुक्त है। वर्षा ऋतु में सारी नदियों का पानी गँदला हो जाता है किन्तु शरद ऋतु में, जब हल्की वर्षा होती है, तो संसार भर में नदियों का जल स्वच्छ हो जाता है। किसी रसायन की अल्प मात्रा से शहरी जलागार की तरह किसी छोटे जलाशय का जल स्वच्छ किया जा सकता है, किन्तु ऐसे अल्प प्रयास से नदियों का जल स्वच्छ नहीं किया जा सकता। किन्तु भगवान् का शक्तिसम्पन्न शुद्ध भक्त न केवल अपने को उबार सकता है, वरन् अपनी संगति से अनेकों को उबारता है।

दूसरे शब्दों में, अन्य विधियों से (यथा ज्ञान-मार्ग या योगासन द्वारा) अपना ही कलुषित हृदय स्वच्छ किया जा सकता है, किन्तु भगवद्भक्ति इतनी शक्तिशाली होती है कि वह शुद्ध शक्तिसम्पन्न भक्त की भक्ति से समस्त लोगों के हृदयों को स्वच्छ कर सकती है। नारद, शुकदेव गोस्वामी, भगवान् चैतन्य, छहों गोस्वामी तथा उनके बाद श्रील भक्तिविनोद ठाकुर तथा श्रीमद् भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर इत्यादि जैसे भगवान् के वास्तविक प्रतिनिधि अपनी शक्तिसम्पन्न भक्ति के द्वारा सभी लोगों का उद्धार कर सकते हैं।

श्रीमद्भागवत को सुनने के सद्प्रयासों द्वारा मनुष्य को भगवान् के साथ दास, सखा, वात्सल्य अथवा माधुर्य प्रेम के दिव्य भाव में अपने स्वाभाविक सम्बन्ध का बोध हो जाता है और इस प्रकार के आत्म-साक्षात्कार से वह तुरन्त भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति का भागी बन जाता है। नारद जैसे समस्त शुद्ध भक्त न केवल स्वरूपसिद्ध जीव थे, वरन् वे स्वान्त:सुखाय उपदेश देने के कार्य में लगे रहते थे और इस तरह से माया के गुणों में फँसे अनेक हीन जीवों का उद्धार करते थे। वे इतने शक्तिसम्पन्न इसीलिए हो सके, क्योंकि वे नियमित रूप से भागवत के सिद्धान्तों का श्रवण एवं पूजन करते थे। संचित हो चुकी भौतिक वासनाएँ, भगवान् के अपने प्रयासों से, ऐसे कार्यों द्वारा स्वच्छ हो जाती हैं। भगवान् जीवों के हृदय में सदैव विद्यमान रहते हैं, किन्तु वे भक्ति-मय सेवा से प्रकट होते हैं।

ज्ञान के अनुशीलन या योग द्वारा हृदय की शुद्धि किसी एक व्यक्ति के लिए कुछ काल के लिए उपयुक्त सिद्ध हो सकती है, किन्तु यह स्थिर जल की अल्प मात्रा को रासायनिक विधियों से स्वच्छ करने के समान है। इस प्रकार से शुद्ध किया जल, मैल के कुछ काल तक तलछट बैठ जाने के कारण स्वच्छ रह सकता है, किन्तु तनिक भी हिलाने पर पुन: गँदला हो जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान् की भक्ति-मय सेवा ही हृदय को सदा के लिए स्वच्छ बनाने की एकमात्र विधि है। अन्य विधियाँ भले ही कुछसमय के लिए श्रेष्ठ हों, किन्तु मन के विचलित होने से पुन: गँदले होने की आशंका रहती है। माया के चंगुल से मुक्ति के लिए सर्वोत्तम विधि यही है कि भगवद्भक्ति के साथ ही नियमित रूप से श्रीमद्भागवत का ध्यानपूर्वक श्रवण किया जाय।

 
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