श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 8: राजा परीक्षित द्वारा पूछे गये प्रश्न  »  श्लोक 8
 
 
श्लोक  2.8.8 
आसीद् यदुदरात् पद्मं लोक-संस्थान-लक्षणम् ।
यावानयं वै पुरुष इयत्तावयवै: पृथक् ।
तावानसाविति प्रोक्त: संस्थावयववानिव ॥ ८॥
 
शब्दार्थ
आसीत्—जिस प्रकार निकला; यत्-उदरात्—जिसके उदरसे; पद्मम्—कमल का फूल; लोक—संसार; संस्थान—स्थिति; लक्षणम्—लक्षण; यावान्—जैसा था; अयम्—यह; वै—निश्चय ही; पुरुष:—श्रीभगवान्; इयत्ता—माप; अवयवै:—अवयवों से; पृथक्—भिन्न; तावान्—वैसा; असौ—वह; इति प्रोक्त:—ऐसा कहा जाता है; संस्था—स्थिति; अवयववान्—अवयव से युक्त; इव—सदृश ।.
 
अनुवाद
 
 यदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्, जिनके उदर से कमलनाल बाहर निकला है, अपने माप के अनुसार विराट शरीर धारण कर सकते हैं, तो फिर भगवान् के शरीर तथा सामान्य जीवात्माओं के शरीर में कौन-सा विशेष अन्तर है?
 
तात्पर्य
 यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि महाराज परीक्षित कितनी बुद्धिमानी से भगवान् के दिव्य शरीर के विषय में ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपने गुरु से प्रश्न करते हैं। इसके पूर्व कई बार कहा जा चुका है कि भगवान् ने कारणोदकशायी विष्णु के सदृश विराट शरीर धारण किया जिनके रोमकूपों से असंख्य ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुए। गर्भोदकशायी विष्णु के शरीर से निकले कमलनाल के शीर्ष पर कमल पुष्प होता है, जिससे ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं। निस्सन्देह, भौतिक संसार की रचना के समय भगवान् विराट शरीर धारण करते हैं और जीवात्माएँ भी आवश्यकतानुसार लघु या दीर्घ शरीर प्राप्त करती हैं। उदाहरणार्थ, हाथी को आवश्यकतानुसार विशाल देह प्राप्त होती है और चींटी को अपनी आवश्यकता के अनुसार लघु देह मिलती है। इसी तरह, यदि भगवान् ब्रह्माण्डों या किसी ब्रह्माण्ड के लोकों को समाहित करने के लिए विराट शरीर धारण करते हैं, तो आवश्यकतानुसार किसी विशेष प्रकार के शरीर को धारण करने के नियम में कोई अन्तर नहीं पड़ता। जीव तथा ईश्वर को केवल शरीर के आकार (प्रमाप) के कारण पर विभेदित नहीं किया जा सकता। अत: इसका उत्तर इस पर निर्भर करता है कि भगवान् के शरीर का सामान्य जीव के शरीर की तुलना में विशिष्ट महत्त्व क्या है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥