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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 9: श्रीभगवान् के वचन का उद्धरण देते हुए प्रश्नों के उत्तर  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  2.9.10 
प्रवर्तते यत्र रजस्तमस्तयो:
सत्त्वं च मिश्रं न च कालविक्रम: ।
न यत्र माया किमुतापरे हरे-
रनुव्रता यत्र सुरासुरार्चिता: ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
प्रवर्तते—रहता है; यत्र—जहाँ पर; रज: तम:—रजो तथा तमोगुण; तयो:—उन दोनों का; सत्त्वम्—सतोगुण; —तथा; मिश्रम्—मिश्रण; —कभी नहीं; —तथा; काल—समय; विक्रम:—प्रभाव; —न तो; यत्र—जहाँ पर; माया—छलना, बहिरंगा शक्ति; किम्—क्या; उत—वहाँ है; अपरे—अन्य; हरे:—भगवान् के; अनुव्रता:—भक्त; यत्र—जहाँ पर; सुर— देवताओं; असुर—तथा असुरों द्वारा; अर्चिता:—पूजित ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् के उस स्वधाम में न तो रजोगुण और तमोगुण रहते हैं, न ही सतोगुण पर इनका कोई प्रभाव दिखता है। वहाँ पर काल को प्रधानता प्राप्त नहीं है। फिर बहिरंगा शक्ति (माया) का तो कहना ही क्या? इसका तो वहाँ प्रवेश भी नहीं हो सकता। देवता तथा असुर, बिना भेदभाव के, भक्तों के रूप में भगवान् की पूजा करते हैं।
 
तात्पर्य
 भगवान् का धाम या वैकुण्ठ लोक का वातावरण जिसे त्रिपादविभूति कहते हैं, भौतिक ब्रह्माण्डों की अपेक्षा तीन गुना विशाल है, जिसका वर्णन यहाँ पर तथा भगवद्गीता में संक्षेप में हुआ है। यह ब्रह्माण्ड, अपने करोड़ों ग्रहों तथा नक्षत्रों सहित महत्-तत्त्व की परिधि में संपुंजित अरबों ब्रह्माण्डों में से एक है। ये समस्त ब्रह्माण्ड मिलकर भगवान् की सृष्टि के चुतर्थांश के तुल्य हैं। वहाँ दिव्य आकाश भी है, जिसके परे वैकुण्ठ नामक आध्यात्मिक लोक हैं और ये सब मिलकर शेष तीन- चौथाई भाग बनाते हैं। ईश्वर की सृष्टियाँ सदा अनन्त होती हैं। यहाँ तक कि एक वृक्ष की पत्तियों या मनुष्य के सिर के बालों की गणना कर पाना असम्भव है। फिर भी मूर्ख व्यक्ति ईश्वर बनने के विचार से फूले-फूले फिरते हैं, भले ही वे अपने शरीर का एक बाल भी न बना सकें। मनुष्य यात्रा करने के नाना प्रकार के यानों का भले ही आविष्कार कर ले और बहुप्रचारित अन्तरिक्षयान द्वारा चन्द्रमा पर पहुँच भी जाय, किन्तु वह वहाँ रह नहीं सकता। फलत: जो मनुष्य बुद्धिमान हैं, वे अपने को ब्रह्माण्ड का ईश्वर मानने का दम्म नहीं करते, वे सत्त्वज्ञान प्राप्त करने के सरलतम साधन वैदिक साहित्य के आदेशों का पालन करते हैं। अत: हमें चाहिए कि श्रीमद्भागवत से हम भौतिक आकाश से परे दिव्य जगत की प्रकृति तथा रचना के विषय में ज्ञान प्राप्त करें। उस आकाश में भौतिक गुणों, विशेष रूप से रजो तथा तमोगुण, का सर्वथा अभाव रहता है। तमोगुण के कारण जीवात्मा में काम तथा वासना की आदतें उत्पन्न होती हैं, जिसका अर्थ यह हुआ कि वैकुण्ठ लोक में जीवात्माएँ इन दोनों बातों से मुक्त हैं। जैसाकि भगवद्गीता में पुष्टि की गई है, मनुष्य ब्रह्मभूत अवस्था में वासना तथा शोक दोनों से मुक्त हो जाता है। अत: इससे निष्कर्ष यह निकला कि वैकुण्ठ लोक के निवासी ब्रह्मभूत जीवात्माएँ हैं, जबकि संसारी जीव वासना तथा शोक से पूर्ण रहते हैं। जब भौतिक जगत में कोई व्यक्ति रजोगुणी तथा तमोगुणी नहीं होता तो उसका यही अर्थ होता है कि वह सतोगुणी है। किन्तु भौतिक जगत में सतोगुण भी कभी-कभी रजो तथा तमोगुण से दूषित हो जाता है। वैकुण्ठ लोक में केवल अमिश्र सतोगुण पाया जाता है।

वहाँ की सारी परिस्थिति बहिरंगा शक्ति की मोहमय सृष्टि से मुक्त रहती है। यद्यपि माया भी परमेश्वर की अंशस्वरूप है, किन्तु वह परमेश्वर से भिन्न है, परन्तु वह मिथ्या (मृषा) नहीं है जैसाकि एकेश्वरवादी दार्शनिक मानते हैं। रस्सी को साँप समझना किसी व्यक्ति विशेष के लिए भ्रम हो सकता है, किन्तु रस्सी तो वास्तविकता है और सर्प भी वास्तविकता है। गर्म मरुस्थल में जल ढूँढ़ते हुए मूर्ख पशु के लिए मृगतृष्णा भ्रम हो सकती है, किन्तु मरुस्थल तथा जल दोनों सत्य हैं। अत: अभक्त के लिए भले ही भगवान् की भौतिक सृष्टि भ्रम लगे, किन्तु भगवान् के भक्त के लिए वही सत्य है और वह भगवान् की बहिरंगा शक्ति का प्राकट्य है। किन्तु भगवान् की यह शक्ति ही सब कुछ नहीं है। भगवान् की एक अन्तरंगा शक्ति भी होती है, जिसकी एक अन्य सृष्टि होती है, जिसे वैकुण्ठ लोक कहते हैं जहाँ न अविद्या है, न वासना, न भ्रम और न भूत न वर्तमान। अल्पज्ञान के कारण मनुष्य वैकुण्ठ लोक जैसी इन वस्तुओं को भले ही न समझ पाए, किन्तु इससे उनका अस्तित्व समाप्त नहीं होता। यदि अन्तरिक्षयान ऐसे लोकों तक नहीं पहुँच पाते तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि ऐसे लोक हैं ही नहीं, क्योंकि हमारे शास्त्रों में इनका वर्णन मिलता है।

जैसाकि श्रील जीव गोस्वामी ने उद्धृत किया है, नारद पंचरात्र से हम जान सकते हैं कि दिव्य जगत अर्थात् वैकुण्ठ लोक दिव्यगुणों से युक्त है। ये दिव्यगुण जो भगवान् की भक्ति के माध्यम से प्रकाश में आते हैं सांसारिक रजो, तमो तथा सतो गुणों से सर्वथा भिन्न होते हैं। ऐसे गुण अभक्तों द्वारा प्राप्त नहीं किये जा सकते। पद्म पुराण के उत्तरखण्ड में कहा गया है कि भगवान् की एक चौथाई सृष्टि से परे शेष तीन चौथाई संसार है। भौतिक सृष्टि तथा आध्यात्मिक सृष्टि के बीच की विभाजक रेखा विरजा नदी है, जो भगवान् के शरीर के पसीने से निकली है। इसके परे ही शेष तीन चौथाई सृष्टि है। यह अंश शाश्वत, अमर, अक्षय तथा अनन्त है और इसमें जीवन की परम सिद्ध स्थिति विद्यमान रहती है। सांख्य कौमुदी में कहा गया है कि अमिश्रित सतोगुण अर्थात् सत्त्व अथवा दिव्यता भौतिक गुणों के सर्वथा विपरीत है। वहाँ की समस्त जीवात्माएँ अखंडित, शाश्वत रूप से परस्पर सम्बन्धित हैं और भगवान् प्रधान तथा सर्वोपरि सत्ता हैं। आगम पुराणों में भी दिव्य धाम का वर्णन इस प्रकार मिलता है—पार्षदों को भगवान् की सृष्टि में कहीं भी जाने की छूट है और ऐसी सृष्टि की कोई सीमा नहीं है, विशेष रूप से तीन-चौथाई क्षेत्र में असीम क्षेत्र होने के कारण। इस संयोग का न तो इतिहास है, न इसका कोई अन्त है।

यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वहाँ पर भौतिक रजो तथा तमो गुणों के सर्वथा अभाव के कारण, सृष्टि या प्रलय का प्रश्न ही नहीं उठता। भौतिक जगत में प्रत्येक वस्तु की सृष्टि होती है और फिर उसका विनाश होता है और सृष्टि तथा विनाश की मध्यावधि क्षणिक है। दिव्यलोक में न तो सृष्टि होती है और न विनाश, फलत: जीवन की अवधि अनन्त होती है। दूसरे शब्दों में, दिव्यलोक की प्रत्येक वस्तु अमर है, वह ज्ञान तथा आनन्द से परि-पूर्ण है और अविनश्वर है। विनाश न होने से, कालानुमान हेतु, वहाँ पर न तो भूत है, न वर्तमान और न भविष्य। इस श्लोक में स्पष्ट उल्लेख है कि काल का प्रभाव उसकी अनुपस्थिति से प्रकट है। सारा संसार तत्त्वों के घात-प्रतिघात से प्रकट होता है, जिससे भूत, वर्तमान तथा भविष्य के रूप में समय का प्रभाव सुस्पष्ट दिखता है। किन्तु वहाँ पर कार्य- कारण के ऐसे घात-प्रतिघात नहीं होते, अत: जन्म-चक्र, वृद्धि, अस्तित्व, रूपान्तर, क्षय तथा प्रलय— ये छ: भौतिक परिवर्तन नहीं पाये जाते। यह तो भगवान् की शक्ति का शुद्ध प्राकट्य है और इसमें कोई माया नहीं है जैसाकि इस भौतिक संसार में अनुभव होता है। वैकुण्ठ का समग्र अस्तित्व बताता है कि वहाँ का प्रत्येक जीव भगवान् का अनुचर है। वहाँ भगवान् ही मुख्य नेता हैं वहाँ नायकत्त्व के लिए कोई होड़ नहीं है और सारे लोग भगवान् के अनुगामी हैं। अत: वेदों में पुष्टि की गई है कि भगवान् ही प्रधान नायक हैं और शेष सारी जीवात्माएँ उनके अधीन हैं, क्योंकि ईश्वर ही इन सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले हैं।

 
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