श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 9: श्रीभगवान् के वचन का उद्धरण देते हुए प्रश्नों के उत्तर  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  2.9.14 
श्रीर्यत्र रूपिण्युरुगायपादयो:
करोति मानं बहुधा विभूतिभि: ।
प्रेङ्खं श्रिता या कुसुमाकरानुगै-
र्विगीयमाना प्रियकर्म गायती ॥ १४ ॥
 
शब्दार्थ
श्री:—लक्ष्मी जी; यत्र—वैकुण्ठ लोक में; रूपिणी—अपने दिव्य रूप में; उरुगाय—भगवान्, जिनकी स्तुति बड़े-बड़े भक्त करते हैं; पादयो:—भगवान् के चरणकमलों में; करोति—करती है; मानम्—सादर सेवा; बहुधा—विविध सामग्री से; विभूतिभि:—अपने पार्षदों के सहित; प्रेङ्खम्—प्रसन्नता से संचलन (थिरकन); श्रिता—शरणागत; या—जो; कुसुमाकर— वसन्त; अनुगै:—भौरों से; विगीयमाना—गुण-गान करते हुए; प्रिय-कर्म—अपने प्रियतम के कार्यकलापों; गायती—गाती हुई ।.
 
अनुवाद
 
 दिव्य रूपधारी लक्ष्मीजी भगवान् के चरणकमलों की प्रेमपूर्ण सेवा में लगी हुई हैं और वसन्त के अनुचर भौरों के द्वारा विचलित होकर, वे न केवल विविध विलास—अपनी सहेलियों सहित भगवान् की सेवा—में तत्पर हैं, अपितु भगवान् की लीलाओं का गुणगान भी कर रही हैं।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥