ददर्श—ब्रह्मा ने देखा; तत्र—वहाँ (वैकुण्ठ लोक में); अखिल—सम्पूर्ण; सात्वताम्—परम भक्तों के; पतिम्—स्वामी; श्रिय:—लक्ष्मी के; पतिम्—स्वामी; यज्ञ—यज्ञ के; पतिम्—स्वामी; जगत्—ब्रह्माण्ड के; पतिम्—स्वामी; सुनन्द—सुनन्द; नन्द—नन्द; प्रबल—प्रबल; अर्हण—अर्हण; आदिभि:—आदि से; स्व-पार्षद—अपने संगी; अग्रै:—अग्रणी; परिसेवितम्— दिव्य प्रेम में सेवित; विभुम्—परम शक्तिमान ।.
अनुवाद
ब्रह्माजी ने वैकुण्ठ लोक में उन श्रीभगवान् को देखा जो सारे भक्त समुदाय के स्वामी, लक्ष्मीजी के पति, समस्त यज्ञों के स्वामी तथा ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं और जो नन्द, सुनन्द, प्रबल तथा अर्हण आदि अपने अग्रणी पार्षदों द्वारा सेवित हैं।
तात्पर्य
जब हम राजा की बात करते हैं, तो इससे यही समझा जाता है कि राजा के साथ उनके विश्वासपात्र पार्षद—यथा उनका सचिव, निजी सचिव, मन्त्री, सलाहकार रहते हैं। इसी प्रकार जब हम भगवान् का दर्शन करते हैं, तो उनके साथ उनकी विभिन्न शक्तियाँ, पार्षद, विश्वासपात्र सेवक आदि भी देखते हैं। अत: परमेश्वर जो समस्त जीवों, समस्त भक्त सम्प्रदायों, ऐश्वर्यों, यज्ञों का स्वामी हैं और अपनी सारी सृष्टि की प्रत्येक वस्तु का भोक्ता हैं, न केवल परम पुरुष हैं वरन् अपनी दिव्य सेवा करने वाले पार्षदों से निरन्तर घिरे रहते है।
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