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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 9: श्रीभगवान् के वचन का उद्धरण देते हुए प्रश्नों के उत्तर  »  श्लोक 19
 
 
श्लोक  2.9.19 
तं प्रीयमाणं समुपस्थितं कविं
प्रजाविसर्गे निजशासनार्हणम् ।
बभाष ईषत्स्मितशोचिषा गिरा
प्रिय: प्रियं प्रीतमना: करे स्पृशन् ॥ १९ ॥
 
शब्दार्थ
तम्—ब्रह्माजी को; प्रीयमाणम्—प्रिय पात्र; समुपस्थितम्—सामने उपस्थित; कविम्—महान् विद्वान; प्रजा—जीवात्माओं की; विसर्गे—सृष्टि के कार्य में; निज—अपना; शासन—नियन्त्रण; अर्हणम्—उपयुक्त; बभाषे—सम्बोधित किया; ईषत्—मन्द; स्मित—हँसते हुए; शोचिषा—उत्साहवर्धक; गिरा—वाणी; प्रिय:—प्रिय; प्रियम्—प्रेमी को; प्रीत-मना:—अत्यन्त प्रसन्न होकर; करे—हाथ से; स्पृशन्—छूते हुए ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् ने ब्रह्माजी को अपने समक्ष देखकर उन्हें जीवों की सृष्टि करने तथा जीवों को अपनी इच्छानुसार नियन्त्रित करने के लिए उपुयक्त (पात्र) समझा। इस प्रकार प्रसन्न होकर भगवान् ने ब्रह्मा से मंद-मंद हँसते हुए हाथ मिलाया और उन्हें इस प्रकार से सम्बोधित किया।
 
तात्पर्य
 जगत की सृष्टि न तो निरुद्देश्य हुई है न आकस्मिक। इस तरह नित्यबद्ध जीवात्माओं को भगवान् द्वारा ब्रह्माजी जैसे अपने ही प्रतिनिधि के मार्ग-दर्शन में मुक्ति के लिए अवसर प्रदान किया जाता है। ब्रह्माजी को वैदिक ज्ञान का उपदेश देते हैं जिससे इस ज्ञान का प्रसार बद्धजीवों तक हो सके। बद्धजीव भगवान् से अपने सम्बन्ध को भूलते रहते हैं, अत: भगवान् के लिए आवश्यक है कि वे सृष्टि करें और वैदिक ज्ञान का प्रसार करें। बद्धजीवों के उद्धार का महान् उत्तरदायित्व ब्रह्माजी पर है, इसीलिए वे भगवान् को अत्यन्त प्रिय हैं।

ब्रह्माजी भी अपने कर्तव्य को भलीभाँति निबाहते हैं—वे न केवल जीवात्माओं को उत्पन्न करते हैं वरन् पतित जीवों के उद्धार के लिए अपने दल को चारों ओर फैला देते हैं। यह दल ब्रह्म सम्प्रदाय कहलाता है और इस दल का हर सदस्य आज भी पतित जीवों का उद्धार करके भगवान् के धाम भेजने में संलग्न है। भगवान् अपने अंशों को वापस पाने के लिए अत्यन्त उत्सुक रहते हैं—जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है। जो पतितों को भगवान् के धाम ले जाने का कार्य करता है, उन्हें उससे अधिक प्रिय अन्य कोई नहीं है।

ब्रह्म सम्प्रदाय में कुछ ऐसे स्वधर्म त्यागी भी हैं जिनका एकमात्र कार्य ईश्वर की विस्मृति कराकर मनुष्यों को इस भौतिक संसार में अधिकाधिक फँसाना है। ऐसे मनुष्य कभी भी भगवान् के प्रिय नहीं बन सकते। भगवान् इन ईर्ष्यालु असुरों को ऐसे अंधकार में भेज देते हैं जहाँ वे परमेश्वर को जान भी नहीं सकें।

किन्तु ब्रह्म सम्प्रदाय का कोई भी व्यक्ति जो भगवान् के सन्देश का उपदेश देता है, भगवान् को प्रिय है और ऐसे ही प्रामाणिक भक्ति सम्प्रदाय के प्रचारक से प्रसन्न होकर वे उससे हाथ मिलाते हैं।

 
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