बहु-रूप:—विविधरूप वाली; इव—मानो; आभाति—प्रकट होती है; मायया—बहिरंगा शक्ति के प्रभाव से; बहु-रूपया— विविध रूपों में; रममाण:—मानो रमण (भोग) कर रहा हो; गुणेषु—विभिन्न गुणों में; अस्या:—बहिरंगा शक्ति का; मम— मेरा; अहम्—मैं; इति—इस प्रकार; मन्यते—सोचता है ।.
अनुवाद
मोहग्रस्त जीवात्मा भगवान् की बहिरंगा शक्ति के द्वारा प्रदत्त अनेक रूप धारण करता है। जब बद्ध जीवात्मा भौतिक प्रकृति के गुणों में रम जाता है, तो वह भूल से सोचने लगता है कि यह “मैं हूँ” और यह “मेरा” है।
तात्पर्य
जीवात्माओं के विभिन्न रूप भगवान् की मोहमयी बहिरंगा शक्ति द्वारा प्रदत्त विभिन्न प्रकार के वस्त्र हैं, जो जीवात्मा के द्वारा भोगे जाने वाले वांछित गुणों के अनुसार होते हैं। बहिरंगा भौतिक शक्ति तीन गुणों—सतो, रजो तथा तमो गुण—द्वारा प्रकट होती है। इस प्रकार प्रकृति में भी, जीवात्मा के लिए चुनाव करने की स्वतन्त्रता रहती है और उसके चुनाव के ही अनुसार बहिरंगा शक्ति उसे विभिन्न प्रकार के शरीर प्रदान करती है। इस तरह ९ लाख प्रकार के जल जीव, २० लाख वनस्पति जीव, ११ लाख कीड़े-मकोड़े तथा सरीसृप, १० लाख पक्षी, ३० लाख विभिन्न जंगली पशु तथा ४ लाख मनुष्य रूप पाये जाते हैं। इस प्रकार ब्रह्माण्ड के समस्त लोकों में ८४,००,००० प्रकार के जीव (योनियाँ) पाये जाते हैं और जीवात्मा अपने भीतर विभिन्न गुणों में रमने वाले आत्मा के अनुसार अनेक देहान्तरों द्वारा घूमता रहता है। यहाँ तक कि एक ही शरीर में जीवात्मा बालपन से लडक़पन और लडक़पन से युवावस्था, फिर युवावस्था से बुढ़ापा और बुढ़ापे से अपने कर्म के अनुसार अन्य शरीर में परिवर्तित होता है। जीवात्मा अपनी निजी इच्छा से शरीर कल्पित करता है और बहिरंगा शक्ति उसे वह रूप प्रदान करती है, जिसका वह पूरी तरह से भोग कर सके। चीते की इच्छा अन्य पशु का रक्तपान करने की थी, अत: बहिरंगा शक्ति ने उसे सुविधासम्पन्न चीते का शरीर प्रदान किया जिससे वह अन्य पशुओं का रक्तपान कर सके। इस प्रकार जो जीवात्मा उच्च लोक में देवता का शरीर पाना चाहता है उसे ईश्वर की कृपा से वैसा शरीर मिल सकता है और यदि वह बुद्धिमान है, तो भगवान् के साहचर्य के लिए आध्यात्मिक शरीर पाने की इच्छा कर सकता है और उसे वह प्राप्त हो जाता है। अत: जीवात्मा को जो थोड़ी बहुत स्वतन्त्रता प्राप्त है उसका उपयोग पूर्णरूपेण किया जा सकता है और ईश्वर इतने दयालु हैं कि वह मनुष्य को इच्छित शरीर प्रदान करते हैं। जीवात्मा की इच्छापूर्ति सुनहले पर्वत का स्वप्न देखने के समान है। मनुष्य जानता है कि पर्वत क्या है और वह यह भी जानता है कि स्वर्ण क्या होता है। किन्तु मात्र इच्छावश वह सुनहले पर्वत का सपना देखता है और जब सपना टूटता है, तो अपने सामने कुछ और ही पाता है। उसके समक्ष न तो सोना होता है, न पर्वत; सुनहले पर्वत की बात तो कोसों दूर रह जाती है।
भौतिक जगत में जीवात्माओं की विभिन्न स्थितियाँ विविध शारीरिक रूप में “मैं” तथा ‘मेरा’ भ्रान्त धारणाओं के कारण हैं। कर्मी इस जगत को ‘मेरा’ रूप में सोचता है और ज्ञानी सोचता है “मैं” ही सब कुछ हूँ। राजनीति, समाजविज्ञान, परोपकार, परार्थवाद आदि की सारी धारणा बद्धजीवों की इसी ‘मैं’ तथा ‘मेरी’ की भ्रान्त धारणा पर आधारित है, जो भौतिक जीवन के भोग की प्रबल इच्छा से जन्य है। समाजवाद, राष्ट्रवाद, पारिवारिक प्रेम आदि विभिन्न विचारधाराओं के अन्तर्गत शरीर और शरीर के जन्मस्थान से आत्मा का सम्बन्ध मानना जीवात्मा द्वारा असली स्वभाव के भूल जाने के कारण है। मोहग्रस्त जीवात्मा की यह सारी भ्रान्त धारणा शुकदेव गोस्वामी तथा महाराज परीक्षित की संगति करके ही दूर की जा सकती है, जैसाकि श्रीमद्भागवत में कहा गया है।
शेयर करें
All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.