परम सुन्दर भगवान् ने ब्रह्मा को सम्बोधित किया—हे वेदों से संपृक्त ब्रह्मा, सृष्टि की इच्छा से की गई तुम्हारी दीर्घकालीन तपस्या से मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ। मैं छद्मयोगियों से बहुत ही मुश्किल से प्रसन्न हो पाता हूँ।
तात्पर्य
तपस्या दो प्रकार की होती है—एक तो इन्द्रियतृप्ति हेतु और दूसरी आत्म-साक्षात्कार हेतु। ऐसे अनेक छद्मयोगी हैं, जो अपनी तृप्ति के लिए कठिन तपस्या करते हैं, किन्तु ऐसे भी योगी हैं, जो भगवान् की इन्द्रिय-तृप्ति के लिए तप करते हैं। उदाहरणार्थ यदि परमाणु हथियार की खोज के लिए तप किया जाय तो इससे भगवान् प्रसन्न नहीं होंगे, क्योंकि ऐसा तप कभी भी सन्तोषप्रद नहीं होगा। प्रत्येक मनुष्य को मरना है, किन्तु यदि किसी के तप द्वारा मृत्यु की प्रक्रिया त्वरित हो जाये, तो इससे भगवान् को प्रसन्नता नहीं होगी। भगवान् चाहते हैं कि उनके सारे अंश भगवान् के धाम पहुँच कर शाश्वत जीवन पाएँ और आनन्द भोगें और सारी भौतिक सृष्टि की रचना इसी उद्देश्य से की गई है। ब्रह्मा ने इसी उद्देश्य के लिए—अर्थात् सृष्टि क्रम को नियमित करने के लिए तपस्या की, जिससे भगवान् प्रसन्न हो सकें। इसीलिए भगवान् उनसे इतने प्रसन्न हुए और ब्रह्माजी को वैदिक ज्ञान से पूरित कर दिया। वैदिक ज्ञान का चरम लक्ष्य भगवान् को जानना है, अन्य कार्यों में इसका दुरुपयोग करना नहीं। जो वैदिक ज्ञान का उपयोग इस कार्य के लिए नहीं करते, वे कूट योगी कहलाते हैं, जो निरुद्देश्य अपना जीवन विनष्ट कर देते हैं।
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