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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 9: श्रीभगवान् के वचन का उद्धरण देते हुए प्रश्नों के उत्तर  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  2.9.21 
वरं वरय भद्रं ते वरेशं माभिवाञ्छितम् ।
ब्रह्मञ्छ्रेय:परिश्राम: पुंसां मद्दर्शनावधि: ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
वरम्—वरदान; वरय—मुझसे माँगो; भद्रम्—कल्याण हो; ते—तुम्हारा; वर-ईशम्—समस्त वरों के दाता; मा (माम्)—मुझसे; अभिवाञ्छितम्—जो चाहो, मुँह माँगा; ब्रह्मन्—हे ब्रह्मा; श्रेय:—परम सफलता; परिश्राम:—समस्त तपस्या के लिए; पुंसाम्— सबों के लिए; मत्—मेरा; दर्शन—साक्षात्कार; अवधि:—पर्यवसान, अन्तिम सीमा ।.
 
अनुवाद
 
 तुम्हारा कल्याण हो। हे ब्रह्मा, तुम मुझसे जो चाहो माँग सकते हो, क्योंकि मैं समस्त वरों का वरदाता हूँ; तुम्हें ज्ञात हो कि सारी तपस्या के फलस्वरूप जो अन्तिम वर प्राप्त होता है, वह मेरा दर्शन है।
 
तात्पर्य
 परमेश्वर का परम साक्षात्कार उनको जानना और अपने समक्ष उनका दर्शन करना है। निर्विशेष ब्रह्म तथा अन्तर्यामी परमात्मा का साक्षात्कार परम साक्षात्कार नहीं है। जब मनुष्य को परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाता है, तो उसे ऐसी तपस्या के लिए संघर्ष करने की आवश्यकता नहीं रह जाती है। जीवन की दूसरी अवस्था है ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए उनकी भक्ति करना। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि जिसने भगवान् के दर्शन कर लिए हैं उसे पूर्णसिद्धि प्राप्त हो चुकी है, क्योंकि उस उच्चतम सिद्धि में सभी कुछ सम्मिलित है। किन्तु निर्विशेषवादी तथा छद्मयोगी इस अवस्था को प्राप्त नहीं कर सकते।
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥