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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 9: श्रीभगवान् के वचन का उद्धरण देते हुए प्रश्नों के उत्तर  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  2.9.23 
प्रत्यादिष्टं मया तत्र त्वयि कर्मविमोहिते ।
तपो मे हृदयं साक्षादात्माहं तपसोऽनघ ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
प्रत्यादिष्टम्—आदेश प्राप्त; मया—मेरे द्वारा; तत्र—के कारण; त्वयि—तुमको; कर्म—कर्तव्य; विमोहिते—मोहग्रस्त होकर; तप:—तपस्या; मे—मेरा; हृदयम्—हृदय; साक्षात्—प्रत्यक्ष रूप से; आत्मा—जीवन तथा आत्मा; अहम्—मैं स्वयं; तपस:— तपस्या करने वाले का; अनघ—हे निष्पाप ।.
 
अनुवाद
 
 हे निष्पाप ब्रह्मा, तुम्हें ज्ञात हो कि जब तुम अपने कर्तव्य के प्रति असमंजस में थे तो सबसे पहले मैंने ही तुम्हें तपस्या करने का आदेश दिया था। ऐसी तपस्या ही मेरा हृदय और मेरी आत्मा है, अत: तपस्या मुझसे अभिन्न है।
 
तात्पर्य
 जिस तपस्या से भगवान् का साक्षात् दर्शन किया जा सकता है, उसे भगवान की भक्तिमय सेवा को समझना चाहिए और कुछ नहीं, क्योंकि केवल दिव्य प्रेमपूर्ण भक्ति भाव के द्वारा ही भगवान् तक पहुँचा जा सकता है। ऐसी तपस्या भगवान् की अन्तरंगा शक्ति होती है और उनसे अभिन्न होती है। ऐसी अन्तरंगा शक्ति के कार्य भौतिक सुख से विरक्ति होने पर प्रगट होते हैं। अत्यधिक प्रभुत्व जताने की प्रवृत्ति के कारण ही जीवात्मा भौतिक बन्धन में बन्दी हो जाती हैं। किन्तु भगवान् की भक्ति करने से मनुष्य सुख-भोग की प्रवृत्ति से विरक्त होता है। भक्तजन स्वत: भौतिक सुख से विरक्त हो जाते हैं और यह विरक्ति पूर्णज्ञान का प्रतिफल है। अत: भक्ति की तपस्या में ज्ञान तथा विरक्ति निहित होते हैं और यही दिव्य शक्ति का प्राकट्य है।

यदि कोई भगवान् के धाम वापस जाने का इच्छुक है, तो वह भौतिक मायावी सम्पत्ति का भोग नहीं कर सकता। जिसे भगवान् की संगति के दिव्य आनन्द का पता नहीं है, वही मूर्खतावश क्षणिक भौतिक सुख की कामना करता है। चैतन्य-चरितामृत में कहा गया है कि यदि कोई सचमुच भगवान् के दर्शन करना चाहता है और उसके साथ-साथ भौतिक सुख का भोग करना चाहता है, तो उसे मूर्ख ही समझना चाहिए। जो सुखोपभोग के लिए इस संसार में रहना चाहता है उसे भगवान् के शाश्वत धाम जाने से कोई मतलब नहीं है। भगवान् ऐसे मूर्ख भक्त की सारी भौतिक सम्पत्ति छीन कर उसे कृतार्थ करते हैं। यदि ऐसा मूर्ख भक्त पुन: सम्पत्ति बटोरना चाहता है, तो दयालु भगवान् उसे दुबारा छीन लेते हैं। बारम्बार भौतिक संपन्नता में ऐसी असफलता के कारण वह अपने कुटुम्बियों तथा मित्रों में बहुत अलोकप्रिय हो जाता है। भौतिक जगत में कुटुम्बी तथा मित्र तो उसी का आदर करते हैं, जो येन-केन प्रकारेण धन संचित करता है। फलस्वरूप, ऐसे मूर्ख भक्त को भगवत्कृपा से बाध्य होकर तपस्या करनी पड़ती है और अन्त में वह भगवद्भक्ति में संपन्न होने के कारण पूर्ण सुखी हो जाता है। अत: भगवद्भक्ति में सिद्धि प्राप्त करने के लिए तपस्या आवश्यक है, चाहे वह स्वैच्छिक भाव से हो या ईश्वर द्वारा बलपूर्वक लादी गई हो और ऐसी तपस्या ही भगवान् की अन्तरंगा शक्ति है।

किन्तु समस्त पापों से पूर्ण रूप से मुक्त हुए बिना भक्त तपस्या में संलग्न नहीं हो सकता। जैसाकि भगवद्गीता का कथन है, वही व्यक्ति भगवान् की पूजा में रत हो सकता है, जो समस्त पापों से मुक्त हो। ब्रह्माजी निष्पाप थे, अत: उन्होंने भगवान् के “तप तप” आदेश का श्रद्धापूर्वक पालन किया और भगवान् ने प्रसन्न होकर उन्हें वांछित फल प्रदान किया। अत: प्रेम तथा तपस्या दोनों के मेल से ही भगवान् प्रसन्न होते हैं और उनकी पूर्ण कृपा प्राप्त की जा सकती है। वे निष्पाप का निर्देशन करते हैं और निष्पाप भक्त जीवन की परम सिद्धि प्राप्त करता है।

 
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