श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 9: श्रीभगवान् के वचन का उद्धरण देते हुए प्रश्नों के उत्तर  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  2.9.26 
तथापि नाथमानस्य नाथ नाथय नाथितम् ।
परावरे यथा रूपे जानीयां ते त्वरूपिण: ॥ २६ ॥
 
शब्दार्थ
तथा अपि—फिर भी; नाथमानस्य—याचक का; नाथ—हे भगवान्; नाथय—प्रदान करो; नाथितम्—इच्छित; पर-अवरे— संसारी तथा दिव्य विषयों में; यथा—जिस प्रकार; रूपे—रूप में; जानीयाम्—जान सकूँ; ते—तुम्हारा; तु—लेकिन; अरूपिण:—निराकार ।.
 
अनुवाद
 
 तथापि हे भगवान्, मेरी आपसे प्रार्थना है कि मेरी इच्छा पूरी करें। कृपया मुझे बताएँ कि दिव्य रूप के होते हुए भी आप संसारी रूप किस प्रकार धारण करते हैं, यद्यपि आपका ऐसा कोई रूप नहीं होता।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥