‘मैं’ तथा ‘मेरा’, जीवन के ये दो भाव दो श्रेणियों के मनुष्यों में प्रकट होते हैं। निम्न अवस्था में ‘मेरा’ भाव प्रमुख रहता है और उच्चतर अवस्था में ‘मैं’ का भाव। पशुओं में ‘मेरा’ भाव कुत्तों तथा बिल्लियों तक में देखा जा सकता है, जो इसी ‘मेरा’ भाव की भ्रान्ति के अन्तर्गत परस्पर लड़ते रहते हैं। मानव जीवन की निम्न अवस्था में भी यही भाव, ‘यह मेरा शरीर है’, ‘यह मेरा परिवार है’, ‘यह मेरी जाति है’, ‘यह मेरा राष्ट्र है’, ‘यह मेरा देश है’ इत्यादि रूपों में उभरता है। चिन्तन की उच्च अवस्था में यही ‘मेरा’ की भ्रान्त धारणा“मैं हूँ” अथवा “मैं ही सब कुछ हूँ” रूप में बदल जाती है। मनुष्यों की नाना श्रेणियाँ हैं, जो ‘मैं’ और ‘मेरे’ को विभिन्न रूपों में ग्रहण करती हैं। किन्तु ‘मैं’ की वास्तविक महत्ता का बोध तभी होता है जब मनुष्य की चेतना हो कि मैं “भगवान् का शाश्वत दास हूँ”। यही शुद्ध चेतना है और सारा वैदिक साहित्य हमें जीवन के इसी भाव की शिक्षा देता है। मैं भगवान् हूँ” या “मैं परब्रह्म हूँ” की भ्रान्त धारणा ‘मेरे’ की धारणा से भी अधिक घातक है। यद्यपि वैदिक साहित्य में कहीं-कहीं ऐसे निर्देश हैं कि मनुष्य अपने को भगवान् के समरूप समझे, किन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं होता कि वह सभी प्रकार से भगवान् के ही समान हो जाता है। निस्सन्देह, अनेक बातों में जीवात्मा तथा भगवान् में एकरूपता है, किन्तु जीवात्मा अन्तत: भगवान् के अधीन होता है और स्वाभाविक दृष्टि से वह भगवान् की इन्द्रियों की तुष्टि के निमित्त बना है। इसीलिए भगवान् बद्धजीव को अपनी शरण में बुलाते हैं; यदि जीवात्माएँ परम इच्छा के अधीन न होतीं, तो उन्हें शरण में आने के लिए क्यों कहा जाता? यदि जीव सभी प्रकार से ईश्वर के समकक्ष होता, तो फिर वह माया के अधीन क्यों रखा गया है? हम इसकी व्याख्या कई बार कर चुके हैं कि भौतिक शक्ति (माया) भगवान् के द्वारा नियन्त्रित है। भगवद्गीता (९.१०) में माया के ऊपर भगवान् की नियामक शक्ति की पुष्टि की गई है। क्या कोई जीवात्मा जो अपने को परमेश्वर के समकक्ष मानता है, माया को वश में कर सकता है? मूर्ख ‘मैं’ जवाब देगा कि भविष्य में वह कर सकता है। यदि यह मान लिया जाय कि भविष्य में वह ऐसा कर सकेगा तो फिर वह अभी माया के वश में क्यों है? भगवद्गीता का कथन है कि परमेश्वर की शरण में जा करके मनुष्य माया के वश से मुक्त हो सकता है, किन्तु यदि वह समर्पण नहीं करता, तो फिर जीवात्मा माया से कभी भी पार नहीं पा सकता। अत: मनुष्य को चाहिए कि भक्ति के अभ्यास से अथवा भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में दृढ़ता से स्थित रहकर ‘मैं’ की भ्रान्ति को त्यागे। बिना किसी काम-धंदे या नौकरी के गरीब मनुष्य जीवन में अनेक कष्ट भोगता रहता है, किन्तु सौभाग्यवश यदि उसे सरकारी नौकरी मिल जाती है, तो वह तुरन्त सुखी हो जाता है। सभी शक्तियों के नियामक भगवान् की श्रेष्ठता को अस्वीकार करने में कोई लाभ नहीं। किन्तु मनुष्य को चाहिए वह अपने को भगवान् का शाश्वत दास मानते हुए अपनी स्वाभाविक महिमा को प्राप्त करे। बद्धजीवन में जीवात्मा माया का दास रहता है, किन्तु मुक्त अवस्था में वह भगवान् का शुद्ध अकिंचन दास रहता है। भगवान् की सेवा करने के लिए आवश्यक है कि प्रकृति के गुणों से अप्रभावित रहा जाय। जब तक मनुष्य मनोरथों का दास है, वह “मैं” तथा ‘मेरा’ के रोग से पूर्ण रूप से मुक्त नहीं हो सकता।
परम सत्य माया की शक्ति के द्वारा दूषित नहीं होता, क्योंकि वही उस शक्ति का नियंता है। आपेक्षिक सत्य माया से आवृत हो सकते हैं किन्तु जब कोई परम सत्य का साक्षात्कार कर रहा होता है, तो सर्वोत्तम उद्देश्य की पूर्ति होती है, जिस तरह सूर्य को समक्ष देखने पर। सिर के ऊपर आकाश में सूर्य प्रकाश से पूर्ण रहता है, किन्तु जब वह दृश्य आकाश में नहीं दिखता तो अंधकार छा जाता है। इसी प्रकार जब मनुष्य परमेश्वर के समक्ष होता है, तो उसके सारे मोह नष्ट हो जाते हैं और जो उनके समक्ष नहीं होता वह माया के अन्धकार में रहता है। इसकी पुष्टि भगवद्गीता (१४.२६) में इस प्रकार हुई है—
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥
अत: मनुष्य को चाहिए कि निष्ठापूर्वक भगवान् का पूजन, भगवान् की महिमा का गायन, सुपात्र से (न कि पेशेवर मनुष्य से प्रत्युत किसी ‘भागवत’ व्यक्ति से) श्रीमद्भागवत का श्रवण तथा शुद्ध भक्तों की संगति करके—इस प्रकार भक्तियोग के विज्ञान को गंभीरता से ग्रहण करे। उसे “मैं” या “मेरा” की भ्रान्तियों से गुमराह नहीं होना चाहिए। कर्मियों को “मेरा” भाव प्रिय है, तो ज्ञानियों को “मैं” भाव और ये दोनों ही माया के बन्धन से मुक्त होने के योग्य नहीं हैं। श्रीमद्भागवत तथा मुख्यत: भागवद्गीता ये दोनों मनुष्य को “मैं” तथा “मेरा” की भ्रान्ति से उबारने के लिए हैं और श्रील व्यासदेव ने इन दोनों को पतित आत्माओं की मुक्ति के लिए ही लिखा है। जीवात्मा को ऐसी दिव्य स्थिति में रहना चाहिए जहाँ काल तथा माया का वश न चले। बद्धजीवन में जीवात्मा को भूत, वर्तमान तथा भविष्य काल के सपनों द्वारा प्रभावित होना पड़ता है। चिन्तक ज्ञान के अनुशीलन द्वारा तथा अहंकार को जीत करके भविष्य चिन्तन द्वारा वासुदेव या परमेश्वर बनकर काल पर विजय पाना चाहता है। किन्तु यह विधि परिपूर्ण नहीं है। सही विधि तो यह है कि भगवान् वासुदेव को हर प्रकार से परमेश्वर मान लिया जाय और ज्ञान के अनुशीलन की परम सिद्धि यह है कि भगवान् की शरण में जाया जाय, क्योंकि वे ही हर वस्तु के स्रोत हैं। केवल इसी भाव में “मैं” तथा “मेरा” की भ्रान्ति से छुटकारा मिल सकता है। श्रीमद्भागवत तथा भगवद्गीता दोनों ही इसकी पुष्टि करते हैं। श्रील व्यासदेव ने अपने महान् ग्रन्थ श्रीमद्भागवत द्वारा मोहग्रस्त जीवात्माओं के लिए आत्मतत्त्व तथा भक्तियोग विधि में विशिष्ट योगदान किया है। बद्धजीव को चाहिए कि वह इस महान् ज्ञान का पूरा-पूरा लाभ उठाए।