हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 9: श्रीभगवान् के वचन का उद्धरण देते हुए प्रश्नों के उत्तर  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  2.9.31 
श्रीभगवानुवाच
ज्ञानं परमगुह्यं मे यद् विज्ञानसमन्वितम् ।
सरहस्यं तदङ्गं च गृहाण गदितं मया ॥ ३१ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-भगवान् उवाच—श्रीभगवान् ने कहा; ज्ञानम्—प्राप्त ज्ञान; परम—अत्यधिक; गुह्यम्—गोपनीय; मे—मेरा; यत्—जो; विज्ञान—बोध; समन्वितम्—से युक्त; स-रहस्यम्—भक्ति सहित; तत्—उसकी; अङ्गम् च—आवश्यक सामग्री; गृहाण—ग्रहण करने का यत्न करो; गदितम्—व्याख्या की गई; मया—मेरे द्वारा ।.
 
अनुवाद
 
 श्रीभगवान् ने कहा—शास्त्रों में वर्णित मुझसे सम्बन्धित ज्ञान अत्यन्त गोपनीय है उसे भक्ति के समन्वय द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। इस विधि के लिए आवश्यक सामग्री की व्याख्या मेरे द्वारा की जा चुकी है। तुम इसे ध्यानपूर्वक ग्रहण करो।
 
तात्पर्य
 ब्रह्माजी इस ब्रह्माण्ड में भगवान् के सर्वोच्च भक्त हैं, अत: भगवान् ने उनके चार प्रश्नों का उत्तर चार महत्त्वपूर्ण वक्तव्यों के रूप में दिया है, जो चतु:श्लोकी मूल भागवत के नाम से ज्ञात हैं। ब्रह्माजी के प्रश्न इस प्रकार थे—(१) पदार्थ में तथा अध्यात्म में भगवान् के कौन-कौन से रूप हैं? (२) भगवान् की विभिन्न शक्तियाँ किस प्रकार कार्य करती हैं? (३) भगवान् अपनी शक्तियों को किस प्रकार संचालित करते हैं? (४) ब्रह्मा को उन्हें सौंपे गये कार्य के सम्बन्ध में किस प्रकार आदेशित किया जाय? इन प्रश्नों का पूर्वाभास इस श्लोक में मिलता है। भगवान् ब्रह्मा को सूचित करते हैं कि शास्त्रों में वर्णित भगवान् विषयक ज्ञान अत्यन्त सूक्ष्म है और जब तक कोई भगवत्कृपा से स्वरूपसिद्ध न हो, इसे समझ नहीं सकता। भगवान् कहते हैं कि जिस तरह वे व्याख्या करते जाँए उसे वे उत्तर के रूप में ग्रहण करते जाँय। इसका अर्थ यह हुआ कि परमेश्वर सम्बन्धी दिव्य ज्ञान को तभी प्राप्त किया जा सकता है जब भगवान् स्वयं उसे प्रदान करें। बड़े से बड़े संसारी चिन्तक भी चिन्तन द्वारा परम सत्य भगवान् को नहीं समझ पाते। चिन्तन से निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार तो हो सकता है, किन्तु वस्तुत: पूर्ण दिव्य ज्ञान तो निर्गुण ब्रह्म के ज्ञान के परे है। इसीलिए इसे परम गुह्य ज्ञान कहा गया है। अनेक मुक्त जीवों में से विरला ही भगवान् को जान पाने का अधिकारी होता है। भगवद्गीता में भी स्वयं भगवान् ने कहा है कि लाखों में से कोई एक मनुष्य सिद्धि प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है और अनेक मुक्त जीवों में से कोई एक ही उन्हें जान पाता है। अत: केवल भक्ति द्वारा ही भगवान् को जाना जा सकता है। रहस्यम् का अर्थ है भगवद्भक्ति। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भगवद्गीता का उपदेश इसीलिए दिया, क्योंकि अर्जुन उनका भक्त तथा मित्र था। ऐसी योग्यता के बिना भगवद्गीता के रहस्य को नहीं समझा जा सकता। अत: जब तक कोई भक्त बन कर भक्तिमय सेवा नहीं करने लगता, तब तक वह श्रीभगवान् को समझ नहीं पाता। यह रहस्य ईश्वर प्रेम है। श्रीभगवान् को जानने का रहस्य इस योग्यता में निहित है। ईश्वर के दिव्य प्रेम को प्राप्त करने के लिए भक्ति सम्बन्धी विधि-विधानों का पालन आवश्यक है। इन विधि-विधानों को विधि-भक्ति कहा जाता है और नवदीक्षित भक्त अपनी वर्तमान इन्द्रियों से इनका पालन कर सकता है। ऐसे विधि-विधान मुख्यत: भगवान् की महिमा के श्रवण तथा कीर्तन पर आधारित हैं जिनका पालन भक्तों की संगति द्वारा ही सम्भव है। फलत: भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने भगवान् की भक्ति में पूर्णता पाने के लिए पाँच मुख्य नियमों की संस्तुति की है। पहला है— भक्तों की संगति (श्रवण), दूसरा भगवान् की महिमा का कीर्तन, तीसरा है, शुद्ध भक्त से श्रीमद्भागवत सुनना, चौथा भगवान् से सम्बन्धित किसी पवित्र स्थान में वास करना तथा पाँचवा है भक्ति सहित भगवान् के श्रीविग्रहको पूजना। ऐसे विधि-विधान भक्ति-मय सेवा के अंगस्वरूप हैं। अत: ब्रह्माजी की प्रार्थना के अनुसार भगवान् इन चारों प्रश्नों तथा इनके अंगभूत प्रश्नों के विषय में अपनी व्याख्या प्रस्तुत करेंगे।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥