श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 9: श्रीभगवान् के वचन का उद्धरण देते हुए प्रश्नों के उत्तर  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  2.9.32 
यावानहं यथाभावो यद्रूपगुणकर्मक: ।
तथैव तत्त्वविज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात् ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
यावान्—मेरे जितने दिव्य रूप हैं; अहम्—मैं; यथा—जिस प्रकार; भाव:—दिव्य अस्तित्व; यत्—उन; रूप—विभिन्न रूप तथा रंग; गुण—गुण; कर्मक:—कार्य; तथा—उसी प्रकार से; एव—निश्चय ही; तत्त्व-विज्ञानम्—वास्तविक बोध; अस्तु—हो; ते— तुमको; मत्—मेरी; अनुग्रहात्—अहैतुकी कृपा से ।.
 
अनुवाद
 
 मेरी अहैतुकी कृपा से तुम्हारे अन्त:करण में उदय होने वाले वास्तविक बोध से तुम्हें मेरे विषय में सब कुछ—मेरा वास्तविक शाश्वत रूप तथा मेरा दिव्य अस्तित्व, रंग, गुण तथा कार्य—ज्ञात हो सकेगा।
 
तात्पर्य
 परम सत्य, भगवान् विषयक ज्ञान की दुरूहता को समझने में सफलता का रहस्य भगवान् की अहैतुकी कृपा है। भौतिक जगत में भी जिस प्रकार अनेक पुत्रों का पिता अपने किन्हीं लाड़ले पुत्रों को ही अपने पद का रहस्य बताता है। पुत्रों में से जिसे वह योग्य समझता है उससे ही रहस्योद्धाटन करता है। समाज में महत्त्वपूर्ण मनुष्य अपनी दयालुता के द्वारा जाना जाता है। इसी प्रकार भगवान् को जानने के लिए मनुष्य को उनका अत्यन्त लाड़ला होना चाहिए। भगवान् असीम हैं। कोई भी उन्हें पूरी तरह नहीं जान सकता, केवल भगवान् के प्रति प्रेमाभक्ति की उन्नति के सहारे ही भगवान् को जानने के लिए प्रिय पात्र बना जा सकता है। यहाँ हम देखते हैं कि भगवान् ब्रह्माजी पर अत्यन्त प्रसन्न हैं, अत: वे उन्हें अपनी अहैतुकी कृपा प्रदान करते हैं, जिससे वे भगवान् का वास्तविक बोध प्राप्त कर सकें।

वेदों में भी कहा गया है कि कोई मनुष्य केवल सांसारिक शिक्षा या बौद्धिक अभ्यास से परम सत्य, परमेश्वर को नहीं जान सकता। प्रामाणिक गुरु तथा भगवान् में अटल विश्वास होने पर ही परम सत्य परमेश्वर को जाना जा सकता है। ऐसा श्रद्धालु व्यक्ति भले ही सांसारिक दृष्टि से अशिक्षित क्यों न हो, भगवत्कृपा से भगवान् को स्वत: जान सकता है। भगवद्गीता में भी कहा गया है कि यह भगवान् पर निर्भर करता है कि वे किसके समक्ष प्रकट हों और किसके समक्ष नहीं। वे अपनी योगमाया शक्ति से अपने को अश्रद्धालुओं से छिपा कर रखते हैं।

जो श्रद्धालु हैं उनके समक्ष भगवान् अपना रूप, गुण तथा लीलाएँ प्रकट करते हैं। भगवान् निर्विशेष नहीं हैं जैसाकि निर्विशेषवादी सोचते हैं, किन्तु उनका वह रूप नहीं होता जिसका हमें अनुभव प्राप्त है। वे अपने भक्तों के समक्ष अपना रूप, यहाँ तक कि अपनी प्रमाप, भी प्रकट करते हैं और यावान् का यही अर्थ है जैसाकि श्रीमद्भागवत के महान् पंडित श्रील जीव गोस्वामी ने बताया है।

भगवान् अपने अस्तित्व की दिव्य प्रकृति को उद्धाटित करते हैं। संसारी विवादक भगवान् के रूप की संसारी अवधारणा बनाते हैं। शास्त्रों में बताया गया है कि भगवान् का कोई संसारी रूप नहीं है, अत: जो अल्पज्ञानी हैं, वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भगवान् निराकार (निर्विशेष) हैं। वे संसारी तथा आध्यात्मिक रूप में अन्तर नहीं कर पाते। उनके अनुसार जिसका भौतिक रूप नहीं है, वह निर्विशेष होगा। यह निष्कर्ष भी संसारी है, क्योंकि रूपहीनता रूप की विपरीत अवधारणा है। संसारी अवधारणा को नकारने से दिव्य स्वरूप स्थापित नहीं होता। ब्रह्म-संहिता में कहा गया है कि भगवान् का दिव्य रूप होता है और वे अपनी इन्द्रियों में से किसी भी इन्द्रिय का उपयोग किसी भी कार्य के लिए कर सकते हैं। उदाहरणार्थ, वे अपने नेत्रों से भोजन कर सकते हैं और अपने पाँव से देख सकते हैं। रूप की संसारी धारणा में कोई न तो आँख से खा सकता है, न ही पाँव से देख सकता है। संसारी शरीर तथा सच्चिदानन्द के दिव्य शरीर में यही अन्तर है। आध्यात्मिक शरीर रूपविहीन नहीं होता; यह भिन्न प्रकार का होता है, जिसके विषय में हम अपनी संसारी इन्द्रियों से धारणा नहीं बना सकते। अत: रूपविहीन का अर्थ है संसारी रूप से रहित अथवा दिव्य शरीर धारण करने वाला जिसके विषय में अभक्तों को काल्पनिक विधि द्वारा बोध नहीं हो पाता।

भगवान् अपने भक्तों के समक्ष अनन्त प्रकार के दिव्य शरीर प्रकट करते रहते हैं, जो एक दूसरे के समान होते हुए भी स्वरूपों में भिन्न होते हैं। भगवान् के कुछ दिव्य शरीर श्यामवर्ण होते हैं, तो कुछ श्वेत वर्ण। कुछ लाल-लाल होते हैं, तो कुछ पीतवर्ण। कुछ चतुर्भुजी होते हैं, तो कुछ दो भुजाओं से युक्त। इनमें से कुछ मछली की तरह होते हैं, तो कुछ सिंह के समान। भगवान् के ये विभिन्न दिव्य रूप भगवत्कृपा से ही भक्त के समक्ष प्रकट होते हैं और इस प्रकार निर्विशेषवादियों के ये झूठे तर्क कि भगवान् के रूप नहीं होता, भगवद्भक्तों को नहीं भाते, भले ही वे भक्त भक्ति में बहुत बढ़े-चढ़े न हों। भगवान् में अनगिनत दिव्य गुण पाये जाते हैं। इनमें से एक है शुद्ध भक्त के प्रति उनका प्रेम। इस संसार के इतिहास में हम उनके दिव्य गुणों की सराहना कर सकते हैं। भगवान् अपने भक्तों की रक्षा करने तथा अधर्मियों का विनाश करने के लिए अवतरित होते हैं। उनके सारे कार्य भक्तों से सम्बन्धित होते हैं। श्रीमद्भागवत भक्तों से सम्बद्ध भगवान् के ऐसे अनेक कार्यों से भरा पड़ा है, किन्तु अभक्तों को भगवान् की इन लीलाओं का कोई ज्ञान भी नहीं होता। जब भगवान् सात वर्ष के ही थे तो उन्होंने गोवर्धन पर्वत उठाकर वृन्दावन के अपने शुद्ध भक्तों को इन्द्र के कोप से बचाया था, जो वर्षा के द्वारा उस स्थान को आप्लावित कर रहा था। सात वर्ष के बालक द्वारा गोवर्धन पर्वत का उठाया जाना भले ही श्रद्धाविहीनों के लिए अविश्वसनीय लगे, किन्तु भक्तों के लिए यह सर्वथा विश्वसनीय है। भक्त को भगवान् की सर्वशक्तिमत्ता पर विश्वास है, किन्तु श्रद्धाविहीन लोग भगवान् को सर्वशक्तिमान मानते हुए भी इस पर विश्वास नहीं करते। ऐसे अल्पज्ञानी यह नहीं समझते कि भगवान् तो शाश्वत रूप से भगवान् हैं और वे लोग लाखों करोड़ों वर्षों तक ध्यान या दार्शनिक चिन्तन करके भी भगवान् नहीं बन सकते। इस श्लोक से संसारी विवादकों की निर्विशेष व्याख्या का खण्डन हो जाता है, क्योंकि यहाँ पर स्पष्ट उल्लेख हुआ है कि मनुष्य की ही तरह भगवान् के भी गुण, रूप, लीलाएँ तथा कार्य होते हैं। भगवान् की दिव्य प्रकृति के ये सारे विवरण भगवद्भक्तों द्वारा अनुभूत तथ्य हैं। ये भगवत्कृपा से केवल शुद्ध भक्तों को ही ज्ञात हो पाते हैं, अन्य किसी को नहीं।

 
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