हमें ध्यान देना होगा कि ब्रह्माको पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सम्बोधित कर रहे हैं और पुरजोर शब्दों में स्वयं स्पष्ट कर रहे हैं कि मैं ही वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हूँ, जो सृष्टि के पूर्व विद्यमान था, मैं ही सृष्टि का पालनकर्ता हूँ और प्रलय के पश्चात् मैं ही बचा रहता हूँ। ब्रह्मा भी इन्हीं परमेश्वर की सृष्टि हैं। निर्विशेषवादी तादात्म्य का सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं कि ब्रह्मा भगवान् के समरूप हैं, क्योंकि वे भी परम सत्य “मैं” से उद्भूत “मैं” हैं, अत: जैसाकि इस श्लोक में वर्णित है “मैं” के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। निर्विशेषवादियों के तर्क को मानते हुए यह स्वीकार करना होगा कि भगवान् स्रष्टा “मैं” हैं और ब्रह्मा सृष्ट “मैं”। अत: इन दोनों “मैं” के बीच अन्तर है—अधिष्ठाता मैं तथा अधीनस्त मैं। अत: निर्विशेषवादियों के तर्क को मान लेने पर भी दो “मैं” रहते हैं। किन्तु हमें यह ध्यान देना होगा कि वैदिक साहित्य (कठोपनिषद्) में ये दो “मैं” गुण के अर्थ में स्वीकृत हैं। कठोपनिषद् का वचन है— नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम्।
एको बहूनां यो विदधाति कामान् ॥
वेदों में स्रष्टा “मैं” तथा सृष्ट “मैं” दोनों ही गुणात्मक रूप से एक हैं, क्योंकि ये दोनों ही नित्य और चेतन हैं। किन्तु एकवचन “मैं” स्रष्टा “मैं” है और सृष्ट “मैं” बहुवचन में है, क्योंकि ब्रह्मा तथा उनके द्वारा सृजित अनेक “मैं” हैं। यही सामान्य सत्य है। पिता से पहले एक पुत्र उत्पन्न होता है, इस पुत्र से कई पुत्र उत्पन्न होते हैं और वे सभी मानव प्राणी के रूप में एक हैं, किन्तु पुत्र तथा पौत्र, पिता से भिन्न भी हैं। पुत्र पिता का स्थान नहीं ग्रहण कर सकता है और न पौत्र ही। इस प्रकार पिता, पुत्र तथा पौत्र एक होते हुए भी पृथक् हैं। इसीलिए स्रष्टा तथा सृष्ट का आपेक्षिक अन्तर वेदों में यह कह कर किया गया है कि आधिष्ठाता “मैं” अधीनस्थ “मैं” का पोषक है और इस प्रकार दोनों “मैं” के बीच व्यापक अन्तर है।
इस श्लोक की दूसरी विशेषता यह है कि भगवान् तथा ब्रह्मा दोनों के व्यक्तित्वों को नकारा नहीं जा सकता। फलत: अधिष्ठाता और अधीनस्थ अन्ततोगत्वा दोनों ही व्यक्ति हैं। इससे निर्विशेषवादियों के इस मत का खण्डन हो जाता है कि अन्तत: प्रत्येक वस्तु निराकार है। अल्पज्ञ निर्विशेषवादियों द्वारा बहुसमर्थित निर्विशेष रूप का खण्डन इसलिए हो जाता है कि प्रधान “मैं” परम सत्य है और वह व्यक्ति है। ब्रह्मा, जो अधीनस्थ “मैं” है, वह भी व्यक्ति है, किन्तु भगवान् नहीं है। आध्यात्मिक मनोविज्ञान ‘स्व’ का बोध अपने आपको परम सत्य मानने में भले ही सुविधा प्रधान करने वाला हो, किन्तु प्रधान तथा आश्रित में अन्तर सदैव रहता है, जिसकी ओर इस श्लोक में स्पष्टत: इंगित है और जिसका निर्विशेषवादी अत्यधिक दुरुपयोग करते हैं। ब्रह्मा अपने समक्ष अपने अधिष्ठाता स्वामी को देख रहे हैं, जो सृष्टि की प्रलय के बाद भी दिव्य रूप में विद्यमान रहते हैं। ब्रह्मा ने जिस रूप का दर्शन किया वह सृष्टि के पहले भी विद्यमान था। संसार में जो कुछ भी दिख रहा है, वह भी भगवान् की शक्ति का विस्तार है और भगवान् की शक्ति के प्रदर्शन के अन्त में जो कुछ बचता है, वह भी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् है। अत: भगवान् का रूप, सृष्टि, पालन तथा संहार इन सभी परिस्थितियों में बना रहता है। वैदिक स्तोत्रों में इस कथन की पुष्टि हुई है—वासुदेवो वा इदम् अग्र आसीन् न ब्रह्मा न च शंकर एको नारायण आसीन्, न ब्रह्मा नेशान आदि। सृष्टि के पूर्व वासुदेव के अतिरिक्त कुछ नहीं था, न तो ब्रह्मा थे, न शंकर। केवल नारायण थे, कोई दूसरा नहीं, न ब्रह्मा, न ईशान। श्रीपाद शंकाराचार्य ने भी भगवद्गीता के भाष्य में इसकी पुष्टि की है कि नारायण समस्त सृष्टि से परे हैं और समग्र सृष्टि अव्यक्त का फल है। अत: स्रष्टा तथा सृष्ट में सदैव अन्तर रहता है भले ही दोनों एकसमान गुण वाले क्यों न हों।
इस कथन की तीसरी विशेषता यह है कि भगवान् परम सत्य हैं। श्रीभगवान् तथा उनके धाम की पहले ही व्याख्या की जा चुकी है। भगवान् का धाम शून्य (रिक्त) नहीं है जैसाकि निर्विशेषवादी बताते हैं। वैकुण्ठ लोक विविधता से पूर्ण हैं—उसमें चार भुजाओं वाले निवासी भी हैं जिनके पास विपुल वैभव है और महापुरुषों के पास विमान तथा अन्य सुविधाजनक साधन तक उपलब्ध है। अत: श्रीभगवान् सृष्टि के पूर्व भी स्थित रहते हैं और वे वैकुण्ठ लोक में समस्त दिव्य विविधता के साथ रहते हैं। भगवद्गीता में भी इन वैकुण्ठ लोकों को सनातन बताया गया है। ये इस विश्व के संहार के पश्चात् भी नष्ट नहीं होते। ये दिव्य लोक पूरी तरह से भिन्न प्रकृति के हैं; उन पर सृष्टि, पालन तथा संहार के नियम लागू नहीं होते। भगवान् के अस्तित्व से वैकुण्ठ लोकों का अस्तित्व सिद्ध होता है, जिस प्रकार राजा से राज्य का अस्तित्व सिद्ध होता है।
श्रीमद्भागवत तथा अन्य शास्त्रों में विभिन्न स्थलों पर भगवान् के अस्तित्व का उल्लेख मिलता है। उदाहरणार्थ, श्रीमद्भागवत (२.८.१०) में महाराज परीक्षित प्रश्न करते हैं—
स चापि यत्र पुरुषो विश्वस्थित्युद्भवाप्यय:।
मुक्त्वात्ममायां मायेश: शेते सर्वगुहाशय: ॥
“जो भगवान् सृष्टि, पालन तथा संहार के कारणस्वरूप हैं, जो माया के प्रभाव से सदैव मुक्त रहते हैं और उसके नियन्ता हैं, वे किस प्रकार प्रत्येक मनुष्य के हृदय में स्थित रहते हैं?” इसी प्रकार विदुर का भी प्रश्न है—
तत्त्वानां भगवंस्तेषां कतिधा प्रतिसंक्रम:।
तत्रेमं क उपासीरन् क उ स्विदनुशेरते ॥
(भागवत ३.७.३७) श्रीधर स्वामी ने अपनी टिप्पणियों में इसकी व्याख्या इस प्रकार की है, “सृष्टि के प्रलय के समय शेषशायी भगवान् की सेवा कौन करता है...।” इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान् अपने नाम, यश, गुण तथा सामग्री सहित शाश्वत रूप से विद्यमान हैं। इसी की पुष्टि स्कन्द-पुराण के काशी-खण्ड में ध्रुवचरित के प्रसंग में हुई है।
न च्यवन्तेऽपि यद्भक्ता महत्यां प्रलयापदि।
अतोऽच्युतोऽखिले लोके स एक: सर्वगोऽव्यय: ॥
भगवान् की बात तो और, यहाँ तक कि भगवान् के भक्तों का भी संसार के पूर्ण प्रलय के समय विनष्ट नहीं होता। भगवान् परिवर्तन की तीनों अवस्थाओं में सर्वदा-विद्यमान रहते हैं। निर्विशेषवादी परमेश्वर पर कर्मरहित होने का आरोप लगाते हैं, किन्तु ब्रह्मा तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की इस वार्ता में भगवान् को रूप तथा गुण से युक्त होने के साथ-ही-साथ कर्मों से युक्त बताया गया है। सृष्टि के पालन के समय ब्रह्मा तथा अन्य देवताओं के कार्यों को भी भगवान् के कार्य ही समझना होगा। भले ही राजा या राज्य का कार्यकारी अध्यक्ष सरकारी कार्यालयों में दिखाई न दे और वह राजसी विलास में लगा हो तो भी यह समझा जाता है कि जो कुछ भी हो रहा है, वह उसी के निर्देशन तथा आदेश के अनुसार हो रहा है। भगवान् कभी भी रूपविहीन नहीं होते। भौतिक जगत में वह अल्पज्ञों को भले ही साकार रूप में न दिखे जिससे उसे रूपविहीन कह लिया जाय, किन्तु वे अपने धाम वैकुण्ठ लोक में तथा अपने विभिन्न अवतारों में अन्य विभिन्न लोकों में नित्य रूप में सैदव रहते हैं। इस प्रसंग में सूर्य का उदाहरण अत्यन्त उपयुक्त होगा। रात्रि के समय भले ही मनुष्यों को अँधेरे में सूर्य न दिखे, किन्तु जब सूर्योदय हो जाता है, तो वह दिखता है। यदि पृथ्वी के किसी एक भूभाग पर सूर्य दृष्टिगोचर नहीं होता तो इसका अर्थ यह तो नहीं है कि सूर्य का कोई रूप नहीं है।
बृहदारण्यक उपनिषद (१.४.१) में एक मन्त्र है—आत्मैवेदम् अग्र आसीत् पुरुषविध:। इससे पुरुष अवतार के भी पूर्व पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् (कृष्ण) की उपस्थिति सूचित होती है। भगवद्गीता (१५.१८) में कहा गया है कि भगवान् श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम हैं, क्योंकि वे परम पुरुष हैं, पुरुष-अक्षर तथा पुरुष-क्षर से भी परे हैं। अक्षर पुरुष या महाविष्णु प्रकृति पर दृष्टिपात करते हैं, किन्तु पुरुषोत्तम तो उनसे भी पहले से विद्यमान थे। अत: बृहदारण्यक-उपनिषद् से भगवद्गीता के इस कथन की पुष्टि होती है कि श्रीकृष्ण ही परम पुरुष (पुरुषोत्तम) हैं।
कुछ वेदों में यह भी कहा गया है कि प्रारम्भ में केवल निर्गुण ब्रह्म था। किन्तु इस श्लोक के अनुसार निर्गुण ब्रह्म को, जो परमेश्वर के रूप की चमचमाती दीप्ति है, कारणस्वरूप कहा जा सकता है, क्योंकि समस्त कारणों के कारण तो पूर्ण पुरुषोत्तम .भगवान् हैं। भगवान् का निर्गुण रूप भौतिक जगत में इसीलिए विद्यमान है, क्योंकि भौतिक नेत्रों या इन्द्रियों से भगवान् को देखा नहीं जा सकता। भगवान् का दर्शन करने की आशा से पूर्व इन्द्रियों को आध्यात्मिक (दिव्य) बनाना होगा। किन्तु वे सदैव साकार रूप में रहते हैं और वैकुण्ठ लोक के वासियों को साक्षात् दिखते हैं। अत: वे राज्य के उस कार्यकारी अध्यक्ष की भाँति भौतिक दृष्टि से निराकार रहते हैं, जो राजभवन में निराकार नहीं रहता। इसी प्रकार भगवान् भी अपने धाम में निराकार नहीं रहते, उनका धाम तो निरस्त-कुहकम् है जैसाकि भागवत के प्रारम्भ में ही कहा गया है। अत: जैसाकि शास्त्रों से प्रकट है, भगवान् के साकार तथा निराकार दोनों ही रूप ग्राह्य हैं। भगवद्गीता (१४.२७) में भगवान् के इस रूप को जोर देकर इस प्रकार वर्णित किया गया है—ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्। इस प्रकार सभी प्रकार से आध्यात्मिक ज्ञान का गुह्य अंश भगवान् का साक्षात्कार है, उनका निराकार ब्रह्म रूप नहीं। अत: मनुष्य का लक्ष्य परम सत्य के इसी साकार रूप का साक्षात्कार है, न कि निराकार रूप का। परम सत्य की विश्वचेतना को समझने हेतु जिज्ञासु के लिए घट के भीतर तथा घट के बाहर आकाश का दृष्टान्त उपयोगी हो सकता है। किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि झूठे दावे से भगवान् का अंश परब्रह्म हो सकता है। इसका अर्थ यही होता है कि बद्धजीव मायाजाल के अन्तिम दाँव का शिकार बन चुका है। भगवान् की विश्वचेतना के साथ तादात्म्य का दावा करना दैवी माया द्वारा तैयार किया गया अन्तिम फन्दा होता है। भगवान् के निराकार होने पर भी मनुष्य को भौतिक सृष्टि की भाँति साकार रूप के साक्षात्कार की आकांक्षा रखनी चाहिए और पश्चादहं यद् एतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् का यही भावार्थ है।
नारद को उपदेश देते समय ब्रह्माजी ने भी इस सत्य को स्वीकार किया है। वे भागवत (२.७.५०) में कहते हैं—सोऽयं तेऽभिहितस्तात भगवान् विश्वभावन:। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हरि के अतिरक्ति समस्त कारणों का कारण कोई अन्य नहीं है। अत: अहमेव इत्यादि श्लोक परमेश्वर के अतिरिक्त और कुछ सूचित नहीं करता। अत: मनुष्य को “ब्रह्म सम्प्रदाय” अर्थात् ब्रह्मा से नारद, फिर व्यास इत्यादि का अनुसरण करना चाहिए और श्रीभगवान् हरि या श्रीकृष्ण को प्राप्त करना ही जीवन का लक्ष्य बनाना चाहिए। शुद्ध भक्तों को दिया गया यह परमगुह्य उपदेश अर्जुन को तथा सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मा को भी दिया गया था। निस्सन्देह ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, इन्द्र, चन्द्र, वरुण इत्यादि देवता विभिन्न कार्यों को सम्पन्न करने के लिए भगवान् के ही विभिन्न रूप हैं; सृष्टि के विभिन्न अवयव, अनेक शक्तियाँ भी उसी भगवान् की हैं, किन्तु इन सबों के मूल श्रीभगवान् श्रीकृष्ण हैं। मनुष्य को चाहिए कि शाखाओं तथा पत्तियों से मोहग्रस्त न होकर, मूल को ही ग्रहण करे। यही इस श्लोक की शिक्षा है।