पिछले श्लोक में यह निष्कर्ष प्राप्त हो चुका है कि विश्व सम्बन्धी प्राकट्य की कोई भी अवस्था—इसकी उत्पत्ति, पालन, विकास, विभिन्न शक्तियों की अन्योन्य क्रियाएँ इसका क्षय तथा विलोप—सभी भगवान् के अस्तित्व से सम्बद्ध हैं। अत: जब भी भगवान् के साथ इस मूल सम्बन्ध को विस्मृत कर दिया जाता है और वस्तुओं को भगवान् से सम्बद्ध किये बिना सत्य मान लिया जाता है, तो इस धारणा को भगवान् की माया का फल समझना चाहिए। चूँकि भगवान् के बिना किसी भी वस्तु का अस्तित्व नहीं हो सकता, इसलिए माया भी भगवान् की एक शक्ति है। प्रत्येक वस्तु को भगवान् से सम्बन्धित करने का समुचित निष्कर्ष “योगमाया” कहलाता है और भगवान् से विलग करने की भ्रान्त धारणा (विच्छेद) भगवान् की दैवी माया या “महामाया” कहलाती है। दोनों प्रकार की माया का भगवान् से सम्बन्ध रहता है, क्योंकि उनके सम्बन्ध के बिना किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं रह सकता। इस प्रकार, भगवान् से सम्बन्ध-विच्छेद की भ्रान्त धारणा असत्य नहीं वरन् भ्रमपूर्ण है। किसी एक वस्तु को दूसरी वस्तु समझना भ्रम कहलाता है। उदाहरणार्थ, रस्सी को साँप मान लेना भ्रम है, किन्तु रस्सी असत्य (मृषा) नहीं है। रस्सी भ्रमग्रस्त व्यक्ति के समक्ष होने से असत्य नहीं है। हाँ, इसको सर्प मान लेना भ्रमपूर्ण है। अत: भौतिक अस्तित्व के विषय में भ्रान्त धारणा भगवान् की शक्ति से त्यक्त हो चुकने पर भ्रम है, किन्तु असत्य नहीं है। यह भ्रान्त धारणा ही अविद्या के अन्धकार में सत्य का प्रतिबिम्ब (छाया) कहलाती है। कोई भी वस्तु जो “मेरी शक्ति से उत्पन्न” नहीं लगती है, वह माया है। जीवात्मा को रूपविहीन मानना या परमेश्वर के निराकार होने की धारणा भी भ्रम है। भगवद्गीता (२.१२) में भगवान् ने युद्धभूमि में स्थित होकर कहा है कि अर्जुन, अर्जुन के समक्ष खड़े योद्धा तथा भगवान् स्वयं इसके पूर्व भी विद्यमान थे, वे कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में भी विद्यमान हैं और भविष्य में भी वर्तमान देह के विनष्ट हो जाने पर और भवबन्धन से छुटकारा पा लेने पर भी इसी रूप में विद्यमान रहेंगे। समस्त अवस्थाओं में भगवान् तथा जीवात्माएँ अपना अस्तित्व बनाये रखती हैं और इन दोनों के साकार रूप कभी नष्ट नहीं होते। केवल माया का प्रभाव, जो अंधकार में प्रकाश के प्रतिबिम्बस्वरूप है, भगवत्कृपा से दूर हो सकता है। भौतिक जगत में सूर्य का प्रकाश भी स्वतन्त्र नहीं है, न ही चन्द्रमा का प्रकाश। प्रकाश का असली स्रोत तो ब्रह्मज्योति है, जो भगवान् के दिव्य शरीर से प्रकाश को उद्भूत करती है और यही प्रकाश अनेक प्रकार के प्रकाशों में प्रतिबिम्बित होता है—यथा सूर्य-प्रकाश, चन्द्रमा का प्रकाश, अग्नि का प्रकाश, बिजली का प्रकाश। अत: परमात्मा से असम्बद्ध होकर आत्मा की सत्ता भी भ्रम है और “मैं परम हूँ” यह झूठा दावा उसी माया का अर्थात् भगवान् की बहिरंगा शक्ति का अन्तिम पाश होता है।
वेदान्त-सूत्र प्रारम्भ में ही पुष्टि करता है कि प्रत्येक वस्तु परमेश्वर से उत्पन्न है, अत: समस्त जीवात्माएँ परम पुरुष भगवान् की शक्ति से उत्पन्न हैं जैसाकि पिछले श्लोक में कहा गया है। ब्रह्मा स्वयं भगवान् की शक्ति से उत्पन्न हैं और अन्य समस्त जीवात्माएँ भी ब्रह्मा के माध्यम से भगवान् की ही शक्ति से उत्पन्न हैं। भगवान् से सम्बन्धित हुए बिना किसी का कोई अस्तित्व नहीं होता।
प्रत्येक जीवात्मा की स्वतन्त्रता वास्तविक स्वतन्त्रता नहीं है, अपितु यह परम पुरुष भगवान् में निहित वास्तविक स्वतन्त्रता का प्रतिबिम्ब मात्र होती है। बद्धजीवों द्वारा परम स्वतन्त्रता का झूठा दावा भ्रम ही है, इस निष्कर्ष को इस श्लोक में स्वीकारा गया है।
अल्पज्ञानी पुरुष भ्रमग्रस्त हो जाते हैं, इसीलिए तथाकथित विज्ञानी, शरीर-विज्ञानी, चिन्तक इत्यादि सूर्य, चन्द्र, बिजली इत्यादि के आभायुक्त प्रतिबिम्ब से चकाचौंध होते रहते हैं और प्रत्येक भौतिक वस्तु की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के विषय में नाना प्रकार के सिद्धान्त तथा कल्पनाएँ प्रस्तुत करके भगवान् के अस्तित्व को नकारते रहते हैं। कोई चिकित्सक मानव के शरीर के भीतर आत्मा के अस्तित्व को नकार सकता है, किन्तु मृत शरीर में वह प्राण नहीं फूँक सकता, यद्यपि मृत्यु के बाद भी शरीर का सारा तन्त्र जैसे का तैसा बना रहता है। मनोवैज्ञानिक मस्तिष्क की बनावट के विषय में गम्भीर अध्ययन करता है, उसके लिए मानो मस्तिष्क के लोथड़े की बनावट ही मानसिक-क्रिया की मशीन हो, किन्तु मृत शरीर के मस्तिष्क को वह क्रियाशील नहीं बना सकता। परमेश्वर से स्वतन्त्र मानकर ब्रह्माण्ड विषयक अथवा शारीरिक रचना विषयक ये वैज्ञानिक अध्ययन केवल बौद्धिक व्यायाम हैं और अन्तत: भ्रम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होते। आधुनिक भौतिक सभ्यता के प्रसंग में विज्ञान तथा ज्ञान सम्बन्धी ऐसी सारी प्रगति माया के आच्छादक प्रभाव के अतिरिक्त और कुछ नहीं होती। माया की दो अवस्थाएँ होती हैं—आच्छादक प्रभाव तथा क्षेपक प्रभाव। क्षेपक प्रभाव के कारण माया जीवों को अविद्या के अन्धकार में गिरा देती है और आच्छादक प्रभाव से वह अल्प ज्ञानियों की आँखें ढक देती है, जिससे वह परम पुरुष के अस्तित्व के विषय में, जिसने सर्वोपरि जीवात्मा ब्रह्मा को प्रकाश दिया, अज्ञानी बना रहता है। यहाँ पर परमेश्वर के साथ ब्रह्मा के तादात्म्य का दावा नहीं किया गया है, अत: अल्पज्ञानियों द्वारा ऐसा मूर्खतापूर्ण दावा भगवान् की माया का दूसरा प्रदर्शन है। भगवान् ने भगवद्गीता (१६.१८-२०) में कहा है—ईश्वर के अस्तित्व को न मानने वाले आसुरी लोगों को अविद्या के अन्धकार में बारबार डाला जाता है, जिससे वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को जाने बिना जन्म- जन्मान्तर देहान्तर करते रहते हैं।
किन्तु विचारवान पुरुष स्वयं भगवान् से उपदिष्ट ब्रह्माजी की शिष्य-परम्परा से, जिन्हें भगवान् ने स्वयं उपदेश दिया या अर्जुन की शिष्य-परम्परा से जिन्हें स्वयं भगवान् ने भगवद्गीता का उपदेश दिया, प्रबुद्ध होते हैं। उसे भगवान् का यह कथन मान्य होता है—
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता: ॥
(भगवद्गीता १०.८) भगवान् समस्त तेजों तथा जो कुछ भगवान् की शक्ति से उत्पन्न हुआ है, पालित है और विनाश को प्राप्त होता है, उन सबके मूल स्रोत हैं। जो विचारवान मनुष्य इसे जान लेता है, वही वास्तव में विद्वान है और वही भगवान् का शुद्ध भक्त बनकर भगवान् की प्रेमाभक्ति में रत होता है।
यद्यपि अल्पज्ञानी के समक्ष भगवान् की प्रतिबिम्बक शक्ति अनेक भ्रम उत्पन्न करती है, किन्तु विचारवान व्यक्ति जानता है कि भगवान् अपनी विभिन्न शक्तियों के द्वारा हमारी दृष्टि से दूर से दूरतर स्थान में रहकर उसी प्रकार कार्य कर सकते हैं जिस प्रकार दूर स्थान में रखी अग्नि गर्मी तथा प्रकाश फैलाती है। प्राचीन ऋषियों के औषधि विज्ञान आयुर्वेद में भगवान् की श्रेष्ठता को निम्नलिखित शब्दों में स्वीकार किया गया है—
जगद्योनेरनिच्छस्य चिदानन्दैकरूपिण:।
पुंसोऽस्ति प्रकृतिर्नित्या प्रतिच्छायेव भास्वत: ॥
अचेतनापि चैतन्ययोगेन परमात्मन:।
अकरोद्विश्वमखिलम् अनित्यम् नाटकाकृतिम् ॥
इस विश्व का एक जनक है, जिसे परम पुरुष कहते हैं और जिसकी शक्ति प्रतिबिम्ब रूप में चकाचौंध करती हुई भौतिक प्रकृति के रूप में कार्य करती है। प्रकृति के ऐसे भ्रमपूर्ण कार्य से मृत पदार्थ भी भगवान् की जीवित शक्ति के सहयोग से गति करने लगता है और अज्ञानी नेत्रों को यह भौतिक जगत नाटक के खेल की तरह प्रतीत होता है। अत: प्रकृति के नाटक में अज्ञानी पुरुष विज्ञानी अथवा शरीरक्रिया विज्ञानी भी हो सकता है, किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति जानता है कि प्रकृति भगवान् की माया है। ऐसे निष्कर्ष से, जिसकी पुष्टि भगवद्गीता द्वारा होती है, यह स्पष्ट है कि जीवात्माएँ भी भगवान् की ज्येष्ठा शक्ति (पराप्रकृति) के प्रदर्शनस्वरूप हैं जिस प्रकार भौतिक जगत भगवान् की कनिष्ठा शक्ति (अपरा शक्ति) का प्रदर्शन है। भगवान् की ज्येष्ठा शक्ति कभी भी भगवान् के समान नहीं हो सकती, यद्यपि शक्ति तथा शक्तिमान में थोड़ा ही अन्तर है जितना कि अग्नि तथा ताप में। अग्नि में ताप होता है, किन्तु ताप अग्नि नहीं है। अल्पज्ञानी की समझ में इतनी सामान्य बात नहीं चढ़ती और वह झूठे ही अग्नि तथा ताप को एक ही बताता है। अग्नि की इस शक्ति (ताप) को सीधे अग्नि न कहकर उसका प्रतिबिम्ब कहा गया है। अत: जीवात्मा के रूप में जीवित शक्ति का प्रदर्शन भगवान् न होकर भगवान् का प्रतिबिम्ब होता है। भगवान् का प्रतिबिम्ब होने के कारण जीवात्मा का अस्तित्व भगवान् पर आश्रित है, जो मूल प्रकाश है। इस भौतिक शक्ति की तुलना अन्धकार से की जा सकती है, क्योंकि वह वस्तुत: अन्धकारस्वरूप होती है और अन्धकार में जीवात्माओं के कार्यकलाप मूल प्रकाश के प्रतिबिम्ब होते हैं। इस श्लोक के आधार पर भगवान् को समझना होगा। भगवान् की दोनों शक्तियों की अ-पराश्रिता को माया या भ्रम कहा गया है। केवल प्रकाश के प्रतिबिम्ब से अविद्याजन्य अन्धकार को दूर करना मुश्किल है। इसी प्रकार सामान्य पुरुष के प्रतिबिम्बित प्रकाश से इस भौतिक संसार से बाहर निकल पाना कठिन है, जब तक मूल प्रकाश से प्रकाश प्राप्त न हो ले। अंधकार में सूर्य का प्रतिबिम्ब अंधकार को दूर करने मेंं असमर्थ रहता है, किन्तु प्रतिबिम्ब से बाहर सूर्य का प्रकाश अन्धकार को दूर कर देता है। यदि कमरे में अंधकार हो तो कोई भी वस्तु नहीं दिखती। इसीलिए अंधकार में मनुष्य को साँपों तथा बिच्छुओं से भय लगता है, भले ही वे वहाँ पर न हों। किन्तु प्रकाश मेंं कमरे की सारी वस्तुएँ स्पष्ट दिखती हैं और साँप-बिच्छुओं का भय भी तुरन्त जाता रहता है। अत: मनुष्य को भगवान् के प्रकाश की—जैसे भगवद्गीता या श्रीमद्भागवत की शरण ग्रहण करनी चाहिए, किन्तु ऐसे प्रतिबिम्ब रूपी पुरुषों की नहीं जो भगवान् के सम्पर्क में नहीं रहते। किसी भी मनुष्य को भगवद्गीता या श्रीमद्भागवत का श्रवण ऐसे पुरुष से नहीं करना चाहिए जो भगवान् के अस्तित्व पर विश्वास नहीं रखता (आस्तिक नहीं है)। ऐसे व्यक्ति का विनाश होना ही है और जो ऐसे पुरुष की संगति करता है उसका भी विनाश होता है।
पद्म पुराण के अनुसार भौतिक ब्रह्माण्ड अनन्त है और वे सारे के सारे अंधकार से पूर्ण हैं। सभी जीव, ब्रह्मा (अनन्त ब्रह्माण्डों में असंख्य ब्रह्मा हैं) से लेकर नगण्य चीटियों तक, अन्धकार में ही उत्पन्न होते हैं और इसके लिए कि वे भगवान् को प्रत्यक्ष देख सकें, भगवान् से प्रकाश प्राप्त करने की आवश्यकता होती है, जिस प्रकार सूर्य को सूर्य के सीधे प्रकाश द्वारा ही देख पाना सम्भव है। किसी भी दीपक या मनुष्यनिर्मित टार्च के प्रकाश से सूर्य को नहीं देखा जा सकता भले ही वह कितना भी शक्तिशाली हो। सूर्य अपने को स्वयं प्रकाशित करता है, अत: भगवान् की विभिन्न शक्तियों के कर्म को अथवा भगवान् को अहैतुकी कृपा द्वारा प्रकट किये गये प्रकाश से ही अनुभव किया जा सकता है। निर्विशेषवादियों का कहना है कि ईश्वर देखा नहीं जा सकता। ईश्वर को तो ईश्वर के प्रकाश से ही देखा जा सकता है, मानवीय चिन्तन द्वारा नहीं। यहाँ इस प्रकाश को विशेष रूप से विद्यात् कहा गया है, जो ब्रह्मा के लिए भगवान् का आदेश है। भगवान् का यह प्रत्यक्ष आदेश उनकी अन्तरंगा शक्ति का प्राकट्य है और इसी शक्ति विशेष द्वारा भगवान् का प्रत्यक्ष दर्शन किया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि केवल ब्रह्मा को ही ऐसा अवसर प्राप्त हो, अपितु जिस किसी पर भगवान् की कृपा होती है, वह अन्तरंगा शक्ति के द्वारा कल्पना के बिना ही श्रीभगवान् का साक्षात्कार कर सकता है।