भौतिक सृष्टि के महान् तत्त्व अर्थात् क्षिति, जल, पावक, समीर तथा गगन समस्त प्रकट वस्तुओं, चाहे समुद्र हो या पर्वत, अथवा जलचर, पौधे, सरीसृप, पक्षी, पशु, मनुष्य, देवता अथवा जिनका भी अस्तित्व है, उनके शरीर में प्रवेश करते हैं, किन्तु साथ ही साथ वे उनसे पृथक् भी स्थित रहते हैं। चेतना के विकसित होने पर मनुष्य शरीरक्रिया तथा भौतिक विज्ञान का अध्ययन कर सकता है, किन्तु ऐसे विज्ञानों के मूल सिद्धान्त भौतिक तत्त्वों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं। चाहे मनुष्य का शरीर हो या पर्वत हो, चाहे ब्रह्मा समेत देवताओं का शरीर हो, वे सभी एक से तत्त्वों क्षिति, जल इत्यादि से बने और उसी के साथ ही ये तत्त्व शरीर से बाहर भी हैं। पहले तत्त्वों की उत्पत्ति हुई, अत: वे शरीर में बाद में प्रविष्ट हुए, किन्तु दोनों ही दशाओं में वे विश्व में प्रविष्ट हुए और नहीं भी प्रविष्ट हुए। इसी प्रकार परमेश्वर अपनी विभिन्न शक्तियों—अन्तरंगा तथा बहिरंगा—सहित इस ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु के भीतर स्थित हैं और उसी के साथ-साथ वे प्रत्येक वस्तु के बाहर वैकुण्ठ लोक में स्थित रहते हैं, जैसाकि पहले कहा जा चुका है। ब्रह्म-संहिता (५.३७) में इसका वर्णन अति सुन्दर ढंग से इस प्रकार मिलता है— आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभिस् ताभिर्य एव निजरूपतया कलाभि:।
गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥
“मैं उन आदि श्रीभगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ जो अपनी सच्चिदानन्द रूप अन्तरंगा शक्ति के विस्तार से, स्व तथा अंशों का सुख उठाते हैं और साथ ही वे सृष्टि के कण-कण में भी व्याप्त रहते हैं।”
उसी ब्रह्म-संहिता (५.३५) में उनके अंशों के इस विस्तार का और भी ठीक तरह से वर्णन हुआ है। यथा एकोऽप्यसौ रचयितुं जगदण्डकोटिं यच्छक्तिरस्ति जगदण्डचया यदन्त:।
अण्डान्तरस्थ परमाणुचयान्तरस्थं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥
“मैं उन आदि श्रीभगवान् गोनिन्द की पूजा करता हूँ जो अपने एक अंश के द्वारा प्रत्येक ब्रह्माण्ड तथा प्रत्येक परमाणु में प्रविष्ट होते हैं और इस प्रकार समग्र सृष्टि भर में अपनी अनन्त शक्ति का असीम प्राकट्य करते हैं।”
निर्विशेषवादी कल्पना कर सकते हैं और चाहें तो देख सकते हैं कि परब्रह्म सर्वव्यापी हैं। इस प्रकार वे इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि उनके साकार होने की कोई संभावना नहीं है। यही भगवान् के दिव्य ज्ञान का रहस्य है। यह रहस्य भगवान् का दिव्य प्रेम है और जो भी भगवान् के ऐसे दिव्य प्रेम से पूरित होता है, वही प्रत्येक परमाणु तथा जड़ एवं चेतन पदार्थ में भगवान् के दर्शन कर सकता है। साथ ही वह भगवान् को उनके धाम गोलोक में अपने नित्य पार्षदों के साथ, जो उनके ही विस्तार हैं, नित्य लीला करते देख सकता है। यही दृष्टि आध्यात्मिक ज्ञान का वास्तविक रहस्य है, जैसाकि भगवान् ने प्रारम्भ में कहा है (स रहस्यं तदंगं च)। यह रहस्य परमेश्वर के ज्ञान का परम गुह्य भाग है और इसे चिन्तक बौद्धिक व्यायाम द्वारा कभी भी प्राप्त नहीं कर सकते। यह रहस्य ब्रह्म-संहिता (५.३८) में ब्रह्माजी द्वारा बताई निम्नलिखित विधि से प्रकाश में आता है—
प्रेमांजनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्त: सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।
यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥
“मैं उन आदि श्रीभगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ जिनका दर्शन शुद्ध भक्त अपनी आँखों में भगवद्प्रेम रूपी अञ्जन लगाकर सदैव अपने हृदयों के भीतर करते हैं। यह गोविन्द समस्त दिव्य गुणों से पूर्ण श्यामसुन्दर स्वरूप हैं।”
अत: पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् प्रत्येक परमाणु में स्थित होकर भी शुष्क चिन्तकों के लिए अदृश्य बने रहते हैं; तो भी शुद्ध भक्तों के नेत्रों के समक्ष सारा रहस्य खुल जाता है, क्योंकि उनमें प्रेमांजन जो लगा रहता है। यह भगवद्प्रेम भगवान् की प्रेमाभक्ति की साधना से ही प्राप्त हो सकता है और किसी तरह नहीं। भक्त की दृष्टि सामान्य नहीं होती वह भक्ति-मय सेवा के द्वारा परिष्कृत हो जाती है। दूसरे शब्दों में, जिस प्रकार ब्रह्माण्ड के सारे तत्त्व बाहर तथा भीतर हैं उसी तरह भगवान् के नाम, रूप, गुण लीलाएँ, पार्षद आदि जिस तरह उनका शास्त्रों में वर्णन हैं या भौतिक संसार से परे वे वैकुण्ठ लोक में दिखते हैं ये सभी भक्त के हृदय में उसी प्रकार दिखते हैं जैसे टेलीविजन में वस्तुएँ दिखती हैं। अल्पज्ञानी पुरुष इसे नहीं समझ पाता यद्यपि वह भौतिक विज्ञान के अन्तर्गत टेलीविजन के द्वारा दूर-दूर की वस्तुएँ देख सकता है। वस्तुत: आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत हुआ व्यक्ति अपने हृदय में भगवान् के धाम का टेलीविजन प्रतिबिम्ब सदैव प्राप्त कर सकता है। भगवान् के ज्ञान का यही रहस्य है।
भगवान् प्रत्येक प्राणी को इस संसार के बन्धन से मुक्ति दिला सकते हैं, किन्तु विरले ही वे भगवत्प्रेम का अधिकार प्रदान करते हैं जिसकी पुष्टि नारद ने भी की है (मुक्तिं दधाति कर्हिचित् स्म न भक्तियोगम्)। भगवान् की यह दिव्य भक्ति इतनी अद्भुत है कि सुपात्र भक्त परम सत्य से ध्यान हटाए बिना मनोनुकूल शारीरिक कार्य में तल्लीन रहता है। इस प्रकार भक्त के हृदय में भगवत्प्रेम का उदय एक महान् रहस्य है। ब्रह्माजी पहले ही नारद से कह चुके हैं कि भगवान् की दिव्यभक्ति में लीन रहने के कारण उनकी इच्छाएँ कभी भी अतृप्त नहीं रहतीं, न ही उनके मन में भक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई इच्छा रहती है। भक्तियोग की यही सुन्दरता है तथा यही रहस्य है। जिस प्रकार अच्युत होने के कारण उनकी इच्छा अचूक है उसी प्रकार दिव्यभक्ति में लगे भक्तों की इच्छाएँ भी अच्युत हैं। किन्तु जिसे भक्ति के रहस्य का ज्ञान नहीं, ऐसे अज्ञानी के लिए यह समझ पाना कठिन है, जिस प्रकार कि पारस पत्थर की शक्ति को समझ पाना। पारस पत्थर अत्यन्त विरल है उसी प्रकार भगवान् का शुद्ध भक्त भी लाखों मुक्त पुरुषों में विरले ही पाया जाता है। (कोटिष्वपि महामुने)। ज्ञान के द्वारा जितनी भी सिद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं, उनमें से भक्ति में योग सिद्धि सर्वोच्च और सर्वाधिक गुह्य सिद्धि है, यहाँ तक कि योगाभ्यास से प्राप्त होने वाली अष्ट सिद्धियों में से भी अधिक गुप्त। अत: भगवान् ने भगवद्गीता (१८.६४) में अर्जुन को इस भक्तियोग का उपदेश दिया है।
सर्वगुह्यतमम् भूय: शृणु मे परमं वच:—भगवद्गीता में सब गोपनीयों में भी गोपनीय मेरे परम सार वचन को फिर से सुन। इसी वचन की पुष्टि ब्रह्माजी द्वारा नारद को कहे गये शब्दों से होती है— इदं भागवतं नाम यन्मे भगवतोदितम्।
संग्रहोऽयं विभूतीनां त्वमेतद्विपुलीकुरु ॥
ब्रह्माजी ने नारद से कहा, “मैंने भागवत के विषय में तुमसे जो कुछ कहा है, वही मुझसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने कहा था और मैं तुम्हें परमार्श दे रहा हूँ जिससे तुम इन कथाओं का उत्तम ढंग से विस्तार कर दो जिससे लोग भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति से गुह्य भक्तियोग को सरलता से समझ सकें।” यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि ब्रह्मा को भक्तियोग का रहस्य भगवान् ने स्वयं बतलाया था। ब्रह्मा ने उस रहस्य को नारद को, नारद ने उसे व्यास को और व्यास ने शुकदेव गोस्वामी को समझाया और यही ज्ञान शुद्ध शिष्य-परम्परा से अब तक चला आ रहा है। यदि कोई इतना भाग्यशाली हो कि उसे शिष्य-परम्परा का यह ज्ञान प्राप्त हो सके तो वह भगवान् के रहस्य तथा उनके शब्द अवतार श्रीमद्भागवत के रहस्य को समझ सकता है।