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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 9: श्रीभगवान् के वचन का उद्धरण देते हुए प्रश्नों के उत्तर  »  श्लोक 37
 
 
श्लोक  2.9.37 
एतन्मतं समातिष्ठ परमेण समाधिना ।
भवान् कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित् ॥ ३७ ॥
 
शब्दार्थ
एतत्—यह; मतम्—निष्कर्ष, निर्णय; समातिष्ठ—स्थित रहते हैं; परमेण—परम; समाधिना—समाधि द्वारा, ध्यान के एकाग्रीकरण से; भवान्—आप; कल्प—बीच की प्रलय; विकल्पेषु—अन्तिम प्रलय में; न विमुह्यति—मोहित नहीं करेगा; कर्हिचित्—कुछ भी ।.
 
अनुवाद
 
 हे ब्रह्मा, तुम मन को एकाग्र करके इस निर्णय का पालन करो। तुम्हें, न तो आंशिक और न ही पूर्ण प्रलय के समय किसी प्रकार का गर्व विचलित कर सकेगा।
 
तात्पर्य
 जिस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता के दसवें अध्याय में सम्पूर्ण गीता का सारांश चार श्लोकों में—अहं सर्वस्य प्रभव: इत्यादि में दिया है, उसी प्रकार सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत के सार को चार श्लोकों में—अहं एवासम् एवाग्रे इत्यादि में रख दिया गया है। इस प्रकार भागवत के महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष का गुह्य सार श्रीमद्भागवत के मूल वक्ता द्वारा रख दिया गया है और वे ही अर्थात् भगवान् श्रीकृष्ण भगवद्गीता के भी मूल वक्ता थे। अनेक वैयाकरणों तथा झगड़ालू अभक्तों ने श्रीमद्भागवत के इन चार श्लोकों की झूठी व्याख्या प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है, किन्तु स्वयं भगवान् ने ब्रह्माजी को उपदेश दिया कि वे उनके द्वारा बताए गये सुस्थिर निर्णय (निष्कर्ष) से विचलित न हों। श्रीमद्भागवत के साररूपी इन चार श्लोकों के शिक्षक भगवान् थे और ब्रह्मा ज्ञान प्राप्तकर्ता थे। शब्दाडम्बर द्वारा अहं शब्द की भ्रान्त व्याख्या से श्रीमद्भागवत के कट्टर अनुयायियों को विचलित नहीं होना चाहिए। श्रीमद्भागवत श्रीभगवान् तथा उनके भक्तों का, जो भागवत कहलाते हैं, मूल पाठ है और किसी भी बाहरी व्यक्ति को भक्ति के इस गुह्य साहित्य तक पैठ नहीं होने देना चाहिए। किन्तु दुर्भाग्यवश निर्विशेषवादी, जिसका भगवान् से कोई सम्बन्ध नहीं है, कभी-कभी अपने व्याकरण सम्बन्धी अल्पज्ञान तथा शुष्कचिन्तन से श्रीमद्भागवत की व्याख्या करता है। अत: भगवान् ब्रह्माजी को आगाह करते हैं (और ब्रह्मा के माध्यम से शिष्य-परम्परा के समस्त भावी भक्तों को भी) कि मनुष्य को तथाकथित वैयाकरणों के निर्णय से या अन्य अल्पज्ञानियों के निर्णय से पथ-विचलित न होकर अपने मन को परम्परा पद्धति में सदैव स्थिर रखना चाहिए। संसारी ज्ञान के बल पर किसी को नवीन व्याख्या करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। अत: ब्रह्मा द्वारा प्राप्त ज्ञान पद्धति के आधार पर पहला सोपान है परम्परा पद्धति का पालन करने वाले प्रामाणिक गुरु के पास पहुँचना जो भगवान् का प्रतिनिधि होता है। किसी को अपने अधूरे संसारी ज्ञान के आधार पर अपना निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। गुरु समस्त प्रामाणिक वैदिक साहित्य के आधार पर शिष्य को सही मार्ग की शिक्षा देने में समर्थ होता है। वह अपने शिष्य को शब्दजाल में नहीं फँसाता। वह अपने शिष्य को अपने स्वयं के कार्यकलापों द्वारा भक्ति-सिद्धान्तों की शिक्षा देता है। मनुष्य सगुण भक्ति के बिना निर्विशेषवादियों तथा शुष्कचिन्तकों की तरह चिंतन करता रहता है और जन्म-जन्मातर तक भी अन्तिम निष्कर्ष तक नहीं पहुँच पाता। प्रामाणिक गुरु के आदेशों के साथ-साथ शास्त्रों के नियमों का पालन करके शिष्य पूर्णज्ञान के पद को प्राप्त करता है, जिसका प्राकट्य सांसारिक इन्द्रिय-तृप्ति की विरक्ति के रूप में होता है। संसारी विवादकों को मनुष्य द्वारा इन्द्रिय-तृप्ति से विरक्त देखकर आश्चर्य होता है और भगवान् के साक्षात्कार करने का कोई भी प्रयास उन्हें रहस्यमय लगता है। ऐन्द्रिय जगत से विरक्त होना आत्म-

साक्षात्कार ब्रह्मभूत अवस्था कहलाती है, जो पराभक्ति की प्रारम्भिक अवस्था है। ब्रह्मभूत अवस्था आत्माराम अवस्था भी कहलाती है, जिसमें मनुष्य आत्मतुष्ट रहता है और सांसारिक इन्द्रिय-सुख की कामना नहीं करता। श्रीभगवान् के दिव्य ज्ञान को समझने के लिए यह पूर्ण तुष्टि की अवस्था उपयुक्त स्थिति है। श्रीमद्भागवत (१.२.२०) इसका समर्थन करता है।

एवं प्रसन्नमनसो भगवद्भक्तियोगत:।

भगवत्तत्त्वविज्ञानं मुक्तसङ्गस्य जायते ॥

इस आत्माराम स्थिति में, जो भक्ति करने के फलस्वरूप सांसारिक इन्द्रिय सुखोपभोग से पूर्ण विरक्ति के द्वारा प्रकट होती है, मनुष्य भगवत-तत्त्व को समझ सकता है।

ऐन्द्रिय जगत की इस पूर्ण तुष्टि तथा विरक्ति अवस्था में ही भगवत-तत्त्व के रहस्य को सभी गुह्य उलझनों सहित समझा जा सकता है, किसी व्याकरण या शुष्क चिन्तन से नहीं। चूँकि ब्रह्मा ऐसे ज्ञान को प्राप्त करने के योग्य थे, अत: भगवान् ने प्रसन्न होकर श्रीमद्भागवत के उद्देश्य को प्रकट किया। भगवान् का यह प्रत्यक्ष आदेश किसी भी भक्त के लिए, जो सांसारिक इन्द्रिय-तृप्ति से विरक्त है, सुलभ है, जैसाकि भगवद्गीता (१०.१०) में कहा गया है—

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥

जो भक्त प्रीतिपूर्वक भगवान् की दिव्य भक्ति में लगे रहते हैं उन्हें भगवान् अपनी अहैतुकी कृपा से प्रत्यक्ष आदेश देते हैं जिससे वे भगवान् के धाम को लौटने के मार्ग में अग्रसर हो सकें। अत: केवल चिन्तन के आधार पर श्रीमद्भागवत के इन चार श्लोकों को समझने का प्रयास नहीं करना चाहिए, अपितु भगवान् के साक्षात् अनुभूति से उनके धाम वैकुण्ठ लोक के विषय में जानने का प्रयास करना चाहिए जैसाकि ब्रह्माजी ने किया। भक्तिजन्य दिव्य स्थिति को प्राप्त भक्त ही ऐसा वैकुण्ठ-साक्षात्कार करने में समर्थ हैं।

गोपालतापनी उपनिषद (श्रुति) में कहा गया है—गोपवेशो मे पुरुष: पुरस्ताद् आविर्बभुव— ब्रह्माजी के समक्ष भगवान् ग्वाले के रूप में अर्थात् श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट हुए जिसका वर्णन बाद में ब्रह्माजी ने ब्रह्म-संहिता (५.२९) में किया है।

चिन्तामणिप्रकरसद्मसु कल्पवृक्ष लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम्।

लक्ष्मीसहस्रशतसम्भ्रम सेव्यमानं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥

ब्रह्माजी भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा करना चाहते हैं, जो सर्वोच्च वैकुण्ठ लोक, गोलोक वृन्दावन में वास करते हैं जहाँ वे ग्वाले के वेश में सुरभि गौवें पालते हैं और जहाँ हजारों लक्ष्मियाँ (गोपियाँ) प्रेम तथा आदरपूर्वक उनकी सेवा करती हैं।

अत: श्रीकृष्ण ही परमेश्वर के मूल रूप हैं (कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्)। इस आदेश से भी यही स्पष्ट है। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ही तो श्रीकृष्ण हैं, वे सीधे नारायण या पुरुष-अवतार नहीं हैं। ये तो बाद के रूप हैं, अत: श्रीमद्भागवत का अर्थ है पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण का बोध और श्रीमद्भागवत भगवद्गीता की तरह भगवान् की वाणी का प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रकार निष्कर्ष यह निकला कि श्रीमद्भागवत भगवद्विज्ञान है, जिसमें भगवान् तथा उनके धाम का पूरी तरह बोध होता है।

 
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