शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित से कहा—जीवात्माओं के नायक ब्रह्मा को अपने दिव्य रूप में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हरि इस प्रकार उपदेश देते दिखे और फिर अन्तर्धान हो गये।
तात्पर्य
इस श्लोक में स्पष्ट उल्लेख है कि भगवान् अजन: अर्थात् परम पुरुष हैं और वे ब्रह्मा को अपना दिव्य रूप (आत्मनो रूपम्) दिखाते हुए चार श्लोकों में श्रीमद्भागवत के सार का उपदेश दे रहे थे। वे जनानाम् अर्थात् समस्त पुरुषों में अजन: अर्थात् परम पुरुष हैं। समस्त जीवात्माएँ पृथक्-पृथक् व्यक्ति हैं और ऐसे व्यक्तियों में भगवान् हरि सर्वश्रेष्ठ हैं जैसी कि इस श्रुति मन्त्र से पुष्टि होती है— नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम्। अत: दिव्य जगत में निराकार रूप के लिए कोई स्थान नहीं है जैसाकि भौतिक संसार में कोई निराकार रूप नहीं है। जब भी चेतना (ज्ञान) होती है, तो साकार रूप सामने आता है। आध्यात्मिक जगत में प्रत्येक वस्तु ज्ञान से पूर्ण है, अत: दिव्य जगत की प्रत्येक वस्तु स्थल, जल, वृक्ष, पर्वत, नदी, मनुष्य पशु, पक्षी इसी गुण अर्थात् चेतना से पूर्ण है, अत: वहाँ की प्रत्येक वस्तु व्यष्टि तथा साकार है। सर्वश्रेष्ठ वैदिक साहित्य श्रीमद्भागवत से हमें यह जानकारी प्राप्त होती है और श्रीभगवान् ने यह सूचना ब्रह्माजी को इसीलिए दी थी कि जीवात्माओं के नायक होने के कारण वे इस सन्देश को सारे विश्व में प्रसारित करके भक्तियोग की परम ज्ञानमयी शिक्षा प्रदान कर सकें। ब्रह्माजी ने अपने प्रिय पुत्र नारद को श्रीमद्भागवत के इसी सन्देश का उपदेश दिया। नारद ने इसे व्यासदेव को दिया और उन्होंने शुकदेव गोस्वामी को। शुकदेव स्वामी के सौजन्य तथा महाराज परीक्षित की कृपा से हमें यह श्रीमद्भागवत प्राप्त है, जिससे हम पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के विज्ञान को स्थायी रूप से सीख सकते हैं।
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