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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 9: श्रीभगवान् के वचन का उद्धरण देते हुए प्रश्नों के उत्तर  »  श्लोक 39
 
 
श्लोक  2.9.39 
अन्तर्हितेन्द्रियार्थाय हरये विहिताञ्जलि: ।
सर्वभूतमयो विश्वं ससर्जेदं स पूर्ववत् ॥ ३९ ॥
 
शब्दार्थ
अन्तर्हित—अन्तर्धान होने पर; इन्द्रिय-अर्थाय—समस्त इन्द्रियों के लक्ष्य, श्रीभगवान् के लिए; हरये—भगवान् के लिए; विहित- अञ्जलि:—हाथ जोडक़र; सर्व-भूत—समस्त जीवात्माओं; मय:—से पूर्ण; विश्वम्—ब्रह्माण्ड; ससर्ज—उत्पन्न किया; इदम्— यह; स:—उसने (ब्रह्माजी); पूर्व-वत्—पहले की भाँति ।.
 
अनुवाद
 
 भक्तों की इन्द्रियों को दिव्य आनन्द प्रदान करने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हरि के अन्तर्धान हो जाने पर ब्रह्माजी हाथ जोड़े हुए ब्रह्माण्ड की जीवात्माओं से पूर्ण वैसी ही सृष्टि पुन: करने लगे जिस प्रकार वह इसके पूर्व थी।
 
तात्पर्य
 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हरि समस्त जीवात्माओं की इन्द्रियों को परिपूर्ण करने के उपादान हैं। बहिरंगा शक्ति की चकाचौंध में मोहित होकर जीवात्माएँ परमात्मा के इच्छाओं की पूर्ति करने की बजाय अपनी इन्द्रियों की पूजा प्रारम्भ कर देती हैं।

हरि-भक्ति-सुधोदय (१३.२) में निम्नलिखित श्लोक आया है—

अक्ष्णो: फलं त्वादृशदर्शनं हि तनो: फलं त्वादृशगात्रसङ्ग:।

जिह्वाफलं त्वादृशकीर्तनं हि सुदुर्लभा भागवता हि लोके ॥

“हे भगवद्भक्त! आँखें तुम्हें देखकर सफल हो जाती हैं और तुम्हारे देह के स्पर्श से स्पर्श की पूर्ति हो जाती है। जिह्वा तुम्हारे गुणों के गान के लिए है, क्योंकि इस संसार में भगवान् का शुद्ध भक्त पाना अत्यन्तदुर्लभ है।”

प्रारम्भ में जीवात्माओं को इन्द्रियाँ इस प्रयोजन के लिए प्रदान की गई थीं कि वे उनसे भगवान् अथवा उनके भक्तों की प्रीतिपूर्वक सेवा करें, किन्तु बद्धजीव बहिरंगा शक्ति के मोह में आकर इन्द्रियसुख से सम्मोहित हो गये। अतएव ईश्वर चेतना की सारी प्रक्रिया इन्द्रियों के बद्ध कार्यों को सही मार्ग पर लाना और फिर से उन्हें भगवान् की सेवा में लगाना है। इसलिए ब्रह्माजी ने पुन: सृष्ट ब्रह्माण्ड में कार्य करने के लिए बद्धजीवों की फिर से सृष्टि करके अपनी इन्द्रियों को भगवान् की प्रत्यक्ष सेवा में लगाया। इस प्रकार यह ब्रह्माण्ड भगवान् की इच्छा से उत्पन्न और विनष्ट होता है। इसकी सृष्टि बद्धजीवों को अवसर प्रदान करने के लिए की जाती है, जिससे वे भगवान् के धाम वापस जाने की दिशा में कार्य कर सकें और ब्रह्माजी, नारदजी, व्यासजी तथा उनकी मंडली इसी उद्देश्य से भगवान् के कार्य में लग जाते हैं। यह कार्य है इन्द्रियतुष्टि के दायरे से बद्धजीवों का उद्धार करना तथा इन्द्रियों को भगवान् की सेवा में प्रवृत्त करने की सामान्य स्थिति में वापस ले जाना। किन्तु निर्विशेषवादी ऐसा करने के बजाय बद्धजीवों को और भगवान् को भी चेतनाहीन बनाने लगे रहते हैं। बद्धजीवों के साथ यह दुर्व्यवहार है। इन्द्रियों की रुग्ण अवस्था दोष के उपचार द्वारा ठीक की जा सकती है न कि इन्द्रियों के उच्छेदन से। यदि आँखों में कोई रोग हो जाय तो ठीक से देखने के लिए उनका उपचार करना चाहिए। आँखों को निकाल लेना तो कोई उपचार नहीं हुआ। इसी प्रकार सारा भवरोग इन्द्रिय-तृप्ति पर आधारित है और रुग्णावस्था से मुक्ति का अर्थ है कि इन्द्रियों को भगवान् का सौंदर्य निहारने, उनकी महिमा सुनने तथा उनके लिए कर्म करने की ओर लगाया जाय। इस प्रकार ब्रह्माजी ने फिर से ब्रह्माण्ड के कार्यों की सृष्टि की।

 
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