श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 9: श्रीभगवान् के वचन का उद्धरण देते हुए प्रश्नों के उत्तर  »  श्लोक 40
 
 
श्लोक  2.9.40 
प्रजापतिर्धर्मपतिरेकदा नियमान् यमान् ।
भद्रं प्रजानामन्विच्छन्नातिष्ठत् स्वार्थकाम्यया ॥ ४० ॥
 
शब्दार्थ
प्रजा-पति:—समस्त जीवात्माओं के पूर्वज; धर्म-पति:—धर्म के पिता; एकदा—एक बार; नियमान्—विधि-विधानों; यमान्— संयम के नियम; भद्रम्—कल्याण; प्रजानाम्—जीवों का; अन्विच्छन्—इच्छा से; आतिष्ठत्—स्थित; स्व-अर्थ—अपना हित; काम्यया—कामना करते हुए ।.
 
अनुवाद
 
 एक बार जीवों के पूर्वज तथा धर्म के पिता ब्रह्माजी ने समस्त जीवात्माओं के कल्याण में ही अपना हित समझते हुए विधिपूर्वक यम-नियमों को धारण किया।
 
तात्पर्य
 यम-नियमों को धारण किये बिना कोई उच्च पद पर आसीन नहीं हो सकता। इन्द्रियतृप्ति का असंयमित जीवन पशु जीवन है और ब्रह्माजी ने अपनी संततियों को उच्चतर कर्तव्यों के निर्वाह हेतु इन्द्रियों पर संयम रखने की शिक्षा दी। वे भगवान् के दास के रूप में सभी का कल्याण चाह रहे थे और जो भी अपने कुल तथा पीढिय़ों के कल्याण की कामना करता है उसे नैतिक धार्मिक जीवन बिताना होता है। उच्चतम नैतिक जीवन है भगवद्भक्त बनना, क्योंकि शुद्ध भक्त में भगवान् के सभी गुण आ जाते हैं। इसके विपरीत, जो ईश्वर भक्त नहीं है, वह सांसारिकता में कितना ही पटु क्यों न हो, किसी उत्तम गुण से सम्पन्न नहीं कहा जा सकता। ब्रह्मा तथा उनकी शिष्य-परम्परा के अनेक व्यक्ति जो भगवान् के शुद्ध भक्त हैं जब तक स्वयं वैसा आचरण नहीं करते तब तक अपने आश्रितों को किसी भी प्रकार का उपदेश नहीं देते।
 
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