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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 9: श्रीभगवान् के वचन का उद्धरण देते हुए प्रश्नों के उत्तर  »  श्लोक 42
 
 
श्लोक  2.9.42 
मायां विविदिषन् विष्णोर्मायेशस्य महामुनि: ।
महाभागवतो राजन् पितरं पर्यतोषयत् ॥ ४२ ॥
 
शब्दार्थ
मायाम्—शक्तियाँ; विविदिषन्—जानने की इच्छा से; विष्णो:—भगवान् की; माया-ईशस्य—समस्त शक्तियों के स्वामी का; महा-मुनि:—ऋषि; महा-भागवत:—भगवान् का उत्कृष्ट भक्त; राजन्—हे राजा; पितरम्—अपने पिता को; पर्यतोषयत्— अत्यन्त प्रसन्न किया ।.
 
अनुवाद
 
 हे राजन्, नारद ने अपने पिता को अत्यधिक प्रसन्न कर लिया और समस्त शक्तियों के स्वामी विष्णु की शक्तियों के विषय में जानने की इच्छा प्रकट की, क्योंकि नारद समस्त ऋषियों तथा समस्त भक्तों में सर्वोपरि हैं।
 
तात्पर्य
 ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों के स्रष्टा होने के कारण ब्रह्मा अनेक विख्यात पुत्रों के जनक हैं, यथा दक्ष नारद तथा सनकादि के जनक हैं। वेदों द्वारा प्रचारित मानव ज्ञान के तीन विभागों—कर्म काण्ड, ज्ञान काण्ड तथा उपासना काण्ड—में से देवर्षि नारद ने अपने पिता ब्रह्मा से उपासना काण्ड, दक्ष ने कर्म काण्ड तथा सनक, सनातनादि ने ज्ञान काण्ड को उत्तराधिकार में प्राप्त किया। किन्तु इन सबमें से नारद को उनके सदाचार, आज्ञापालन, विनयशीलता तथा पिता के प्रति सेवा सन्नद्धता के कारण ब्रह्मा का अत्यन्त प्रिय पुत्र कहा गया है। नारद मुनियों में सर्वश्रेष्ठ हैं, क्योंकि समस्त भक्तों में वे श्रेष्ठ हैं। नारद भगवान् के अनेक प्रसिद्ध भक्तों के गुरु हैं। वे प्रह्लाद, ध्रुव, व्यास से लेकर वन पशुओं के हन्ता किरात तक के गुरु हैं। उनका एकमात्र कार्य हर एक को भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति की ओर उन्मुख करना है। इसीलिए इन सारे गुणों के कारण वे अपने पिता के सर्वाधिक प्रिय पुत्र हैं और नारद का प्रथम कोटि का भगवद्भक्त होना इसका एकमात्र कारण है। भक्तगण समस्त शक्तियों के स्वामी परमेश्वर के विषय में अधिकाधिक जानने के इच्छुक रहते हैं। जैसाकि भगवद्गीता (१०.९) में कहा गया है—

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम्।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥

परमेश्वर अनन्त हैं और उनकी शक्तियाँ भी असीम हैं। उन्हें कोई पूर्णत: नहीं जान सकता। ब्रह्माजी इस ब्रह्माण्ड के सबसे महान जीव होने तथा भगवान् से प्रत्यक्ष उपदेश प्राप्त करने के कारण अन्यों की अपेक्षा अधिक जानते हैं, यद्यपि ऐसा ज्ञान पूर्ण नहीं हो सकता। अत: प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह ब्रह्मा की शिष्य-परम्परा में, जो नारद से व्यास और व्यास से शुकदेव आदि से आगे चली आ रही है, गुरु से अनन्त भगवान् के विषय में जिज्ञासा करें।

 
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