किसी सिद्ध महात्मा से आध्यात्मिक या दिव्य ज्ञान को समझने की विधि पाठशाला के शिक्षक से कोई सामान्य प्रश्न पूछने जैसी नहीं है। आजकल शिक्षकों को ज्ञान प्रदान करने के एवज में धन दिया जाता है, किन्तु गुरु वेतनभोगी नहीं होता, न ही वह बिना अधिकार के शिक्षा दे सकता है। भगवद्गीता (४.३४) में दिव्य ज्ञान को समझने की विधि का निर्देश इस प्रकार है— तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: ॥
अर्जुन को सलाह दी गई थी कि वह किसी सिद्ध पुरुष से समर्पण, प्रश्न तथा सेवा द्वारा दिव्य ज्ञान प्राप्त करे। दिव्य ज्ञान प्राप्त करना डालरों के विनिमय जैसा व्यापार नहीं हैं। ऐसा ज्ञान गुरु की सेवा करके प्राप्त किया जाता है। जिस प्रकार से ब्रह्माजी ने भगवान् को पूरी तरह तुष्ट करके उनसे प्रत्यक्ष दिव्य ज्ञान प्राप्त किया, उसी प्रकार गुरु को प्रसन्न करके दिव्य ज्ञान प्राप्त करना होता है। गुरु की तुष्टि से ही दिव्य ज्ञान आत्मसात् होता है। केवल वैयाकरण बन जाने से दिव्य ज्ञान नहीं समझा जा सकता।
वेदों की घोषणा है (श्वेताश्वतर उपनिषद् ६.२३)—
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यैते कथिता ह्यर्था: प्रकाशन्ते महात्मन: ॥
“जिसकी अडिग भक्ति भगवान् तथा गुरु में होती है, उसके ही लिए दिव्य ज्ञान स्वत: प्रकट होता है।” शिष्य तथा गुरु का ऐसा सम्बन्ध शाश्वत है। आज जो शिष्य है, वही आगे चलकर गुरु बनेगा। और जब तक शिष्य अपने गुरु की आज्ञा का कड़ाई से पालन नहीं करता तब तक वह प्रामाणिक तथा वैध गुरु नहीं बन सकता। ब्रह्माजी ने भगवान् से शिष्य रूप में वास्तविक ज्ञान प्राप्त किया और इसे अपने प्रिय शिष्य नारद को प्रदान किया। इसी प्रकार नारद ने गुरु के रूप में यह ज्ञान व्यास को हस्तान्तरित किया और आगे भी ऐसा ही हुआ। अत: तथाकथित औपचारिक गुरु तथा शिष्य ब्रह्मा तथा नारद अथवा नारद तथा व्यास के प्रतिरूप नहीं हो सकते। ब्रह्मा तथा नारद का सम्बन्ध एक वास्तविकता (सत्य) थी, किन्तु ठग तथा ठगे जाने वाले का सम्बन्ध तथाकथित औपचारिकता है। यहाँ यह स्पष्ट उल्लेख है कि नारद न केवल शिष्ट, विनीत तथा आज्ञाकारी थे, वरन् वे आत्मसंयमी भी थे। जो आत्मसंयमी नहीं है, विशेष रूप से कामी जीवन में, वह न तो शिष्य बन सकता है, न गुरु। मनुष्य को वाणी, क्रोध, जीभ, मन, उदर तथा कामेन्द्रियों पर संयम रखने की अनुशासनिक शिक्षा मिलनी चाहिए। जो उपर्युक्त विशिष्ट इन्द्रियों पर संयम प्राप्त कर लेता है, वह गोस्वामी कहलाता है। गोस्वामी हुए बिना न तो कोई शिष्य बन सकता है और न गुरु। इन्द्रिय-संयम के बिना तथाकथित गुरु निश्चय ही वंचक (ठग) है और उसका शिष्य वंचित है।
हमें इस लोक के अनुभव की तरह ब्रह्माजी को मृत प्रपितामह नहीं समझना चाहिए। वे सबसे बड़े प्रपितामह हैं और अब भी जीवित हैं। नारद भी जीवित हैं। भगवद्गीता में ब्रह्मलोक के निवासियों की आयु का उल्लेख है। ये क्षुद्र पृथ्वीलोकवासी मुश्किल से ब्रह्मा के एक दिन की अवधि की गणना कर सकते हैं।