प्रथम गुरु एवं ब्रह्माण्ड के सर्वश्रेष्ठ जीव होते हुए भी ब्रह्माजी अपने कमल आसन के स्रोत का पता न लगा सके और जब उन्होंने भौतिक जगत की सृष्टि करनी चाही तो वे यह भी न जान पाये कि किस दिशा से यह कार्य प्रारम्भ किया जाय, न ही ऐसी सृष्टि करने के लिए कोई विधि ही ढूँढ पाये।
तात्पर्य
यह श्लोक भगवान् के रूप तथा धाम की दिव्य प्रकृति की व्याख्या की प्रस्तावना है। श्रीमद्भागवत के प्रारम्भ में यह कहा जा चुका है कि परमेश्वर अपने धाम में वंचक शक्ति के सम्पर्क में आये बिना रहते हैं। अत: भगवान् का धाम कल्पना न होकर एक भिन्न दिव्य लोकों का क्षेत्र है, जिसे वैकुण्ठ कहते हैं। इस अध्याय में इसकी भी व्याख्या की जाएगी।
इस भौतिक आकाश से बहुत ऊपर परव्योम का ज्ञान तथा उसकी सारी सामग्री की जानकारी भक्तियोग के द्वारा सम्भव है। ब्रह्माजी ने भक्तियोग के बल पर ही सृष्टि करने की शक्ति प्राप्त की थी। सृष्टि करते समय ब्रह्माजी भ्रमित हो गये थे और वे अपनी स्थिति तक का पता नहीं लगा पा रहे थे, किन्तु उन्हें यह सारा ज्ञान भक्तियोग के द्वारा ही प्राप्त हो सका। भक्तियोग से ईश्वर को जाना जा सकता है और ईश्वर को सर्वोच्च मान कर शेष सब कुछ जाना जा सकता है। जो परमेश्वर को जानता है, वह सब कुछ जानता है। यही समस्त वेदों का कथन है। इस ब्रह्माण्ड के आदि गुरु ब्रह्मा को भी भगवान् की कृपा से प्रकाश प्राप्त हुआ था; तो ऐसा और कौन होगा जो उनकी कृपा के बिना सब कुछ जान सके? जो हर एक विषय की पूर्ण जानकारी प्राप्त करना चाहता है उसे चाहिए कि भगवत्कृपा प्राप्त करे; इसके अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं है। अपने निजी बल पर ज्ञान की खोज करने का प्रयास समय का अपव्यय होगा।
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