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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 9: श्रीभगवान् के वचन का उद्धरण देते हुए प्रश्नों के उत्तर  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  2.9.6 
स चिन्तयन् द्वय‍क्षरमेकदाम्भ-
स्युपाश‍ृणोद् द्विर्गदितं वचो विभु: ।
स्पर्शेषु यत्षोडशमेकविंशं
निष्किञ्चनानां नृप यद् धनं विदु: ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
स:—उसने; चिन्तयन्—सोचते हुए; द्वि—दो; अक्षरम्—अक्षर; एकदा—एक बार; अम्भसि—जल में; उपाशृणोत्—पास ही सुना; द्वि:—दो बार; गदितम्—उच्चरित; वच:—शब्द; विभु:—महान्; स्पर्शेषु—स्पर्शाक्षिर; यत्—जो; षोडशम्—सोलहवाँ; एकविंशम्—तथा इक्कीसवाँ; निष्किञ्चनानाम्—संन्यासियों का; नृप—हे राजा; यत्—जो हैं; धनम्—सम्पत्ति; विदु:—जैसाकि ज्ञात है ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार जब जल में स्थित ब्रह्माजी सोच रहे थे तब पास ही उन्होंने परस्पर जुड़े हुए दो शब्द दो बार सुने। इनमें से एक सोलहवाँ और दूसरा इक्कीसवाँ स्पर्श अक्षर था। ये दोनों मिलकर विरक्त जीवन की निधि बन गए।
 
तात्पर्य
 संस्कृत भाषा में व्यञ्जन शब्दों के दो विभाग हैं—स्पर्श वर्ण तथा तालव्य वर्ण। क से लेकर म तक के अक्षर स्पर्श वर्ण कहलाते हैं और इस समूह का सोलहवाँ अक्षर त है, जबकि इक्कीसवाँ अक्षर प है। अत: जब वे दोनों मिल जाते हैं, तो तप शब्द अर्थात् तपस्या बनता है। यह तप ब्राह्मणों तथा तपस्वियों का सौंदर्य तथा धन है। भागवत दर्शन के अनुसार, प्रत्येक मनुष्य तप के निमित्त बना है और किसी निमित्त नहीं, क्योंकि एकमात्र तपस्या के द्वारा उसे आत्मबोध हो सकता है। मानव जीवन का धर्म इन्द्रियतृप्ति नहीं, अपितु आत्म-साक्षात्कार है। यह तप सृष्टि के आदि काल से ही चला आ रहा है और सर्वप्रथम परमगुरु ब्रह्माजी ने इसे ग्रहण किया था। तपस्या के ही द्वारा मनुष्य को मानव जीवन का लाभ प्राप्त हो सकता है, पशु जीवन की दिखलावटी सभ्यता से नहीं। पशु खाने, पीने तथा मजा उड़ाने द्वारा इन्द्रियतृप्ति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं जानता, किन्तु मनुष्य का जन्म तपस्या करके भगवान् के धाम वापस जाने के लिए हुआ है।

जब ब्रह्माजी की समझ में नहीं आ रहा था कि ब्रह्माण्ड की सृष्टि किस प्रकार की जाय तो वे कमल-आसन के स्रोत का तथा सृष्टि के साधन का पता लगाने के लिए जल के भीतर गये जहाँ उन्होंने तप शब्द की दो बार गूँज सुनी। तप के पथ को ग्रहण करना जिज्ञासु का मानो दूसरा जन्म हो। यहाँ पर उपाशृणोत् शब्द अत्यन्त सार्थक है। यह उपनयन के समान है, अर्थात् तप के मार्ग पर शिष्य को गुरु के समीप लाने के समान है। अत: ब्रह्माजी को श्रीकृष्ण ने दीक्षा दी और इसकी पुष्टि स्वयं ब्रह्माजी ने अपनी कृति ब्रह्म-संहिता में की है। ब्रह्म-संहिता में प्रत्येक श्लोक में ब्रह्माजी ने गोविन्दमादि-पुरुषं तमहं भजामि स्तुति की है। इस तरह श्रीकृष्ण ने कृष्ण महामन्त्र द्वारा ब्रह्मा को दीक्षा दी जिससे विशाल ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने के पूर्व वे वैष्णव अर्थात् भगवान् के भक्त हो सके। ब्रह्म-संहिता में उल्लेख है कि ब्रह्माजी को अठारह अक्षर वाले कृष्ण मन्त्र में दीक्षित किया गया जिसे प्राय: कृष्ण के समस्त भक्त स्वीकार करते हैं। हम उसी सिद्धान्त का पालन करते हैं, क्योंकि हमारा ब्रह्म सम्प्रदाय से सम्बन्ध है, जो सीधे ब्रह्मा से नारद, नारद से व्यास, व्यास से मध्वमुनि, मध्वमुनि से माधवेन्द्र पुरी तथा माधवेन्द्र पुरी से ईश्वर पुरी, ईश्वर पुरी से भगवान् चैतन्य और क्रमश: हमारे गुरु भगवत्कृपामूर्ति भक्तिसिद्धान्त सरस्वती की शिष्य-परम्परा में है।

इस प्रकार जो मनुष्य शिष्य-परम्परा में दीक्षित होता है उसे वैसा ही फल या सृष्टि करने की शक्ति प्राप्त होती है। कामनारहित भगवद्भक्त के लिए इस पवित्र मन्त्र का जप ही एकमात्र आसरा है। केवल ऐसी तपस्या से भगवद्भक्त ब्रह्माजी के समान सारी सिद्धियाँ प्राप्त कर लेता है।

 
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