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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 9: श्रीभगवान् के वचन का उद्धरण देते हुए प्रश्नों के उत्तर  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  2.9.7 
निशम्य तद्वक्तृदिद‍ृक्षया दिशो
विलोक्य तत्रान्यदपश्यमान: ।
स्वधिष्ण्यमास्थाय विमृश्य तद्धितं
तपस्युपादिष्ट इवादधे मन: ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
निशम्य—सुनकर; तत्—उस; वक्तृ—वक्ता; दिदृक्षया—यह जानने के लिए कि कौन बोला; दिश:—सभी ओर; विलोक्य— देखकर; तत्र—वहाँ; अन्यत्—अन्य कोई; अपश्यमान:—न पाकर; स्वधिष्ण्यम्—अपने कमल आसन पर; आस्थाय—बैठ गये; विमृश्य—सोचकर; तत्—इसको; हितम्—कल्याण; तपसि—तपस्या में; उपादिष्ट:—उसे जैसा आदेश मिला था; इव— के पालन में; आदधे—दिया; मन:—ध्यान ।.
 
अनुवाद
 
 जब उन्होंने वह ध्वनि सुनी तो वे ध्वनिकर्ता को चारों ओर ढूँढऩे का प्रयत्न करने लगे। किन्तु जब वे अपने अतिरिक्त किसी को न पा सके, तो उन्होंने कमल-आसन पर दृढ़तापूर्वक बैठ जाना और आदेशानुसार तपस्या करने में ध्यान देना ही श्रेयस्कर समझा।
 
तात्पर्य
 जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए ब्रह्माजी के उदाहरण का अनुसरण करना चाहिए, क्योंकि वे सृष्टि के आदि-प्राणी हैं। परमेश्वर द्वारा तपस्या में दीक्षित किये जाने पर उन्होंने तपस्या करने का संकल्प किया और अपने चारों ओर अपने सिवा अन्य किसी को न पाकर वे ठीक ही समझ सके कि वह ध्वनि स्वयं भगवान् ने की थी। उस समय ब्रह्मा बिल्कुल अकेले थे, क्योंकि तब कोई सृष्टि नहीं हुई थी और न उनके अतिरिक्त वहाँ अन्य कोई था। श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक में ब्रह्मा को श्रीभगवान् ने अन्त:करण से ही दीक्षा दी थी। भगवान् प्रत्येक जीवात्मा के भीतर परमात्मा के रूप में स्थित हैं और उन्होंने ब्रह्मा को इसलिए दीक्षित किया क्योंकि वे दीक्षा लेने के लिए इच्छुक थे। इसी प्रकार जो भी दीक्षा लेने का इच्छुक हो उसे भगवान् दीक्षा दे सकते हैं।

जैसाकि बताया जा चुका है ब्रह्मा इस ब्रह्माण्ड के आदि गुरु हैं और चूँकि स्वयं भगवान् ने उन्हें दीक्षा दी थी अत: श्रीमद्भागवत की कथा शिष्य-परम्परा से चली आ रही है, इसीलिए श्रीमद्भागवत की वास्तविक कथा (संदेश) प्राप्त करने के लिए, मनुष्य को चाहिए कि शिष्य-परम्परा से चले आ रहे गुरु के पास जाए। फिर उस परम्परा में योग्य गुरु से दीक्षित होकर उसे भक्ति करने के लिए तपस्या में रत हो जाना चाहिए। किन्तु उसे अपने आपको ब्रह्मा के समान समझ कर सीधे भगवान् द्वारा अन्त:करण से दीक्षा दिये जाने की बात नहीं सोचनी चाहिए, क्योंकि इस युग में कोई भी व्यक्ति ब्रह्मा के समान शुद्ध नहीं माना जा सकता। ब्रह्माण्ड-सृष्टि के लिए ब्रह्मा-पद का भार सर्वाधिक शुद्ध जीव को सौंपा जाता है और जब तक वह उतना ही योग्य न हो, उसे ब्रह्मा के समान नहीं माना जा सकता। किन्तु उसे वैसी ही सुविधाएँ भगवान् के शुद्ध भक्तों द्वारा, शास्त्रों के आदेशों द्वारा (जैसाकि विशेष रूप से भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में प्रकट हैं) तथा प्रामाणिक गुरु द्वारा प्राप्त हो सकती हैं। जो मनुष्य हृदय से भगवान् की सेवा में निष्ठा रखता है, उसके समक्ष भगवान् स्वयं गुरु रूप में प्रकट होते हैं। अत: उस प्रामाणिक गुरु को, जो दैववश निष्ठावान शिष्य को प्राप्त होता है, भगवान् का सबसे विश्वासपात्र तथा प्रिय प्रतिनिधि मानना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति ऐसे प्रामाणिक गुरु के निर्देशन में रहता है, तो यह निस्सन्देह समझना चाहिए कि उसे भगवत्कृपा प्राप्त हो गई है।

 
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