श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 9: श्रीभगवान् के वचन का उद्धरण देते हुए प्रश्नों के उत्तर  »  श्लोक 8
 
 
श्लोक  2.9.8 
दिव्यं सहस्राब्दममोघदर्शनो
जितानिलात्मा विजितोभयेन्द्रिय: ।
अतप्यत स्माखिललोकतापनं
तपस्तपीयांस्तपतां समाहित: ॥ ८ ॥
 
शब्दार्थ
दिव्यम्—स्वर्ग के देवताओं का; सहस्र—एक हजार; अब्दम्—वर्ष; अमोघ—निर्मल, निष्कलंक; दर्शन:—ऐसी जीवन-दृष्टि वाला; जित—नियंत्रित; अनिल—प्राण; आत्मा—मन; विजित—वशीकृत; उभय—दोनों; इन्द्रिय:—इन्द्रियों वाला; अतप्यत— तपस्या की; स्म—भूतकाल में; अखिल—समस्त; लोक—ग्रह; तापनम्—प्रकाशनार्थ; तप:—तपस्या; तपीयान्—अत्यन्त कठिन तप; तपताम्—समस्त तपस्वियों का; समाहित:—इस प्रकार स्थित ।.
 
अनुवाद
 
 ब्रह्माजी ने देवताओं की गणना के अनुसार एक हजार वर्षों तक तपस्या की। उन्होंने आकाश से यह दिव्य अनुगूँज सुनी और इसे ईश्वरीय मान लिया। इस प्रकार उन्होंने अपनी इन्द्रियों तथा मन को वश में किया। उन्होंने जो तपस्या की, वह जीवात्माओं के लिए महान् शिक्षा बन गई। इस प्रकार ब्रह्मा जी तपस्वियों में महानतम माने जाते हैं।
 
तात्पर्य
 ब्रह्माजी ने तप की रहस्यमय ध्वनि सुनी, किन्तु वे यह नहीं देख पाये कि इसको कौन उच्चरित कर रहा है। फिर भी उन्होंने इस आदेश को उपयोगी समझ कर स्वीकार कर लिया और वे एक हजार दिव्य वर्षों तक तपस्या करते रहे। एक दिव्य वर्ष हमारे ६×३०×१२×१००० वर्षों के तुल्य होता है। ध्वनि को स्वीकार करने का मूल कारण यह था कि उनमें भगवान् विषयक विशुद्ध दृष्टि थी और इस सही दृष्टि के कारण उन्होंने भगवान् तथा भगवान् के आदेश में कोई अन्तर नहीं माना। भले ही भगवान् स्वयं उपस्थित न हों, किन्तु उनमें तथा उनकी ध्वनि में कोई अन्तर नहीं होता। ईश्वर को जानने की सर्वोत्तम विधि यही है कि ऐसे ईश्वरीय आदेश को शिरोधार्य कर लिया जाय और ब्रह्मा, जो हर एक के आदि गुरु हैं, दिव्य ज्ञान प्राप्त करने की इस विधि के जीते-जागते उदाहरण हैं। दिव्य ध्वनि की शक्ति कभी क्षीण नहीं होती, क्योंकि ध्वनिकर्ता ओझल रहता है। अत: श्रीमद्भागवत या भगवद्गीता या संसार के किसी अन्य शास्त्र को कभी भी दिव्य शक्ति से विहीन सामान्य संसारी ध्वनि (वाणी) नहीं समझना चाहिए।

मनुष्य को इस दिव्य ध्वनि को उपयुक्त स्रोत से प्राप्त करके उसे सत्य मानकर बिना किसी हिचक के आदेश के तौर पर पालन करना होता है। सफलता का रहस्य यही है कि प्रामाणिक गुरु से अर्थात् उपयुक्त स्रोत से ध्वनि ग्रहण की जाय। संसारी कृत्रिम ध्वनि में शक्ति नहीं होती, अत: अप्रामाणिक व्यक्ति से प्राप्त तथाकथित दिव्य ध्वनि में कोई शक्ति नहीं होती। ऐसी दिव्य शक्ति को जान लेने की योग्यता होनी चाहिए और जिसे अपने विवेक से या कि भाग्य से गुरु द्वारा यह दिव्य ध्वनि प्राप्त हो सके, समझिये कि उसकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो गया। किन्तु शिष्य को गुरु के आदेश का पालन करने के लिए उद्यत रहना चाहिए जिस प्रकार ब्रह्माजी ने अपने प्रामाणिक गुरु साक्षात् भगवान् के आदेश का पालन किया था। शिष्य का एकमात्र कर्तव्य है कि वह प्रामाणिक गुरु का आदेश माने और प्रामाणिक गुरु के आदेश का पूर्ण श्रद्धा-सहित पालन करना ही सफलता का रहस्य है।

ब्रह्माजी ने अपनी दोनों प्रकार की इन्द्रियों—कर्मेन्द्रियों तथा ज्ञानेन्द्रियों—पर नियन्त्रण प्राप्त किया, क्योंकि इनका उपयोग भगवान् के आदेश पालन में करना था। अत: इन्द्रियों के नियन्त्रण का अर्थ है उन्हें भगवान् की दिव्य सेवा में लगाना। भगवान् का आदेश तो प्रामाणिक गुरु के माध्यम से शिष्य परम्परा में अवतरित होता है, अत: प्रामाणिक गुरु के आदेश के पालन का अर्थ है इन्द्रियों को सचमुच नियन्त्रित करना। पूर्ण श्रद्धा तथा निष्ठा के साथ ऐसी तपस्या करके ब्रह्माजी इतने शक्तिसम्पन्न बन सके कि वे ब्रह्माण्ड के स्रष्टा हो गए। ऐसी शक्ति प्राप्त करने के कारण ही उन्हें तपस्वियों में सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है।

 
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