ब्रह्माजी ने जो तप-कष्ट सहे, वे निश्चय ही भक्ति की श्रेणी में थे। अन्यथा ब्रह्मा को स्वलोकम् अर्थात् भगवान् का निजी धाम वैकुण्ठ लोक न दिखता। भगवान् का स्वलोक अर्थात् वैकुण्ठ न तो काल्पनिक है, न भौतिक जैसाकि निर्विशेषवादी सोचते हैं। किन्तु भगवान् के इन दिव्य धामों की प्राप्ति भक्ति द्वारा ही सम्भव है और इस प्रकार भक्त लोग ही इन धामों में प्रवेश करते हैं। निस्सन्देह, तप करना कष्टप्रद है, किन्तु भक्ति योग साधना में जो कष्ट सहे जाते हैं, वे आरम्भ से ही दिव्य आनन्द प्रदान करने वाले होते हैं, किन्तु आत्म-साक्षात्कार की अन्य विधियों (ज्ञान योग, ध्यान योग इत्यादि) में तप कष्टदायी होता है; उससे अन्तत: कष्ट ही मिलता है और वैकुण्ठ की प्राप्ति नहीं हो पाती। दानों से रहित भूसी को चबाने से क्या लाभ! इसी प्रकार आत्म-साक्षात्कार के लिए भक्तियोग के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार की कष्टप्रद तपस्या करने से कोई लाभ नहीं है। भक्तियोग साधना श्रीभगवान् के उदर से निकले कमल पर आसन जमाने के समान है, क्योंकि ब्रह्माजी उसी पर आसीन थे। ब्रह्माजी भगवान् को प्रसन्न कर सके और भगवान् ने भी प्रसन्न होकर उन्हें अपना धाम दिखलाया। श्रील जीव गोस्वामी ने श्रीमद्भागवत की क्रम-संदर्भ नामक अपनी टीका में गर्ग उपनिषद से वह उद्धरण दिया है, जिसमें कहा गया है कि याज्ञवल्क्य ने गार्गी से भगवान् के दिव्य लोक के विषय में वर्णन किया और बताया यह लोक ब्रह्माण्ड के सर्वोच्च लोक ब्रह्मलोक के ऊपर स्थित है। भगवान् का यह धाम अल्पज्ञानियों के लिए गुत्थी बना रहता है, यद्यपि भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत जैसे ग्रंथों में इसका वर्णन हुआ है। यहाँ पर स्वदृष्टवद्भि: शब्द महत्त्वपूर्ण है। जो वास्तव में स्वरूपसिद्ध है, वही अपने दिव्य स्वरूप को समझ पाता है। स्व तथा परमेश्वर का निर्विशेष साक्षात्कार पूर्ण नहीं है, क्योंकि संसारी व्यक्तियों का यह विरोधी विचार है। भगवान् तथा भगवद्भक्त सभी दिव्य हैं। उनके कोई भौतिक शरीर नहीं होता। भौतिक शरीर में पाँच प्रकार के क्लेशों का आवरण रहता है ये हैं—अविद्या, भौतिक बोध, आसक्ति, घृणा तथा अवशोषण। जब तक मनुष्य इन पाँचों क्लेशों से घिरा रहता है, तब तक वैकुण्ठ लोक में उसके प्रविष्ट होने का प्रश्न ही नहीं उठता। स्व की निर्विशेष विचारधारा भौतिक व्यक्तित्व का निषेध है और दिव्य स्वरूप के अस्तित्व से कोसों दूर है। अगले श्लोकों में दिव्य धाम के सगुण रूपों की व्याख्या की जाएगी। ब्रह्माजी ने भी सर्वोच्च लोक, वैकुण्ठ लोक, को गोलोक वृन्दावन कहा है जहाँ भगवान् गोप के रूप में दिव्य सुरभि गायों सहित सैकड़ों-हजारों लक्ष्मियों से घिरे हुए रहते हैं।
चिन्तामणिप्रकरसद्मसु कल्पवृक्षलक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम्।
लक्ष्मीसहस्रशतसंभ्रमसेव्यमानं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥
(ब्रह्म-संहिता ५.२९) भगवद्गीता के इस कथन—यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम—की भी पुष्टि होती है। परम का अर्थ है परब्रह्म। अत: भगवान् का धाम भी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से अभिन्न है, ब्रह्म भी है। भगवान् वैकुण्ठ कहलाते हैं और उनका धाम भी वैकुण्ठ है। ऐसे वैकुण्ठ का साक्षात्कार तथा पूजा दिव्य रूप तथा इन्द्रिय द्वारा ही सम्भव है।