श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 1: विदुर द्वारा पूछे गये प्रश्न  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  3.1.11 
अजातशत्रो: प्रतियच्छ दायं
तितिक्षतो दुर्विषहं तवाग: ।
सहानुजो यत्र वृकोदराहि:
श्वसन् रुषा यत्त्वमलं बिभेषि ॥ ११ ॥
 
शब्दार्थ
अजात-शत्रो:—युधिष्ठिर का, जिसका कोई शत्रु नहीं है; प्रतियच्छ—लौटा दो; दायम्—उचित भाग; तितिक्षत:—सहिष्णु का; दुर्विषहम्—असह्य; तव—तुम्हारा; आग:—अपराध; सह—सहित; अनुज:—छोटे भाइयों; यत्र—जिसमें; वृकोदर—भीम; अहि:—बदला लेने वाला सर्प; श्वसन्—उच्छ्वास भरा; रुषा—क्रोध में; यत्—जिससे; त्वम्—तुम; अलम्—निश्चय ही; बिभेषि—डरते हो ।.
 
अनुवाद
 
 [विदुर ने कहा] तुम्हें चाहिए कि युधिष्ठिर को उसका न्यायोचित भाग लौटा दो, क्योंकि उसका कोई शत्रु नहीं है और वह तुम्हारे अपराधों के कारण अकथनीय कष्ट सहन करता रहा है। वह अपने छोटे भाइयों सहित प्रतीक्षारत है जिनमें से प्रतिशोध की भावना से पूर्ण भीम सर्प की तरह उच्छ्वास ले रहा है। तुम निश्चय ही उससे भयभीत हो।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥