श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 1: विदुर द्वारा पूछे गये प्रश्न  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  3.1.13 
स एष दोष: पुरुषद्विडास्ते
गृहान् प्रविष्टो यमपत्यमत्या ।
पुष्णासि कृष्णाद्विमुखो गतश्री-
स्त्यजाश्वशैवं कुलकौशलाय ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह; एष:—यह; दोष:—साक्षात् अपराध; पुरुष-द्विट्—श्रीकृष्ण का ईर्ष्यालु; आस्ते—विद्यमान है; गृहान्—घर में; प्रविष्ट:—प्रवेश किया हुआ; यम्—जिसको; अपत्य-मत्या—अपना पुत्र सोचकर; पुष्णासि—पालन कर रहे हो; कृष्णात्— कृष्ण से; विमुख:—विरुद्ध; गत-श्री:—प्रत्येक शुभ वस्तु से विहीन; त्यज—त्याग दो; आशु—यथाशीघ्र; अशैवम्—अशुभ; कुल—परिवार; कौशलाय—के हेतु ।.
 
अनुवाद
 
 तुम साक्षात् अपराध रूप दुर्योधन का पालन-पोषण अपने अच्युत पुत्र के रूप में कर रहे हो, किन्तु वह भगवान् कृष्ण से ईर्ष्या करता है। चूँकि तुम इस तरह से कृष्ण के अभक्त का पालन कर रहे हो, अतएव तुम समस्त शुभ गुणों से विहीन हो। तुम यथाशीघ्र इस दुर्भाग्य से छुटकारा पा लो और सारे परिवार का कल्याण करो।
 
तात्पर्य
 अच्छा पुत्र अपत्य कहा जाता है अर्थात् वह पिता को नीचे नहीं गिरने देता। पिता के मरने पर पुत्र भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ सम्पन्न करके अपने पिता की आत्मा की रक्षा कर सकता है। यह प्रथा भारत में अब भी प्रचलित है। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् पुत्र भगवान् विष्णु के चरणकमलों पर यज्ञ करने के लिए गया जाता है और इस तरह, पितापथच्युत यदि हो गया हो, पिताकी आत्मा का उद्धार करता है। किन्तु यदि पुत्र पहले से विष्णु का शत्रु हो तो भला ऐसे शत्रु भाव में वह भगवान् विष्णु के चरणकमलों में यज्ञ कैसे कर सकता है? श्रीकृष्ण प्रत्यक्ष भगवान् विष्णु हैं और दुर्योधन उनकी ओर शत्रुवत् था। अतएव वह अपने पिता धृतराष्ट्र की मृत्यु के बाद उसकी रक्षा नहीं कर सकता था। विष्णु की ओर अपनी श्रद्धा विहीनता के कारण, उसका तो स्वयं का पतन होना है। तो फिर वह अपने पिता की रक्षा कैसे कर सकेगा? विदुर ने धृतराष्ट्र को सलाह दी कि यदि वह अपने परिवार का कल्याण देखना चाहता है, तो यथाशीघ्र वह दुर्योधन जैसे अयोग्य पुत्र से अपना पिंड छुड़ा ले।

चाणक्य पण्डित के नीति-उपदेशों के अनुसार “ऐसे पुत्र से क्या लाभ जो न तो विद्वान है, न भगवद्भक्त?” यदि पुत्र भगवद्भक्त नहीं है, तो वह अंधे नेत्रों के समान पीड़ा का कारण होता है। कभी कभी चिकित्सक ऐसी व्यर्थ आँखों को उनके गोलकों से निकाल देने की सलाह देता है, जिससे निरन्तर पीड़ा से छुटकारा मिल सके। दुर्योधन अन्धे कष्टकारक नेत्रों के तुल्य था। वह धृतराष्ट्र के परिवार के लिए महान् विपदा का स्रोत होगा, जैसाकि विदुर ने पहले ही देख लिया था। अत: विदुर ने अपने ज्येष्ठ भ्राता को इस कष्ट के स्रोत से छुटकारा पाने की ठीक ही सलाह दी थी। धृतराष्ट्र ऐसे साक्षात् अपराध को इस भ्रमपूर्ण धारणा से पाल-पोस रहा था कि दुर्योधन अच्छा पुत्र है, जो अपने पिता को मुक्ति दिलाने में समर्थ है।

 
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