श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 1: विदुर द्वारा पूछे गये प्रश्न  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  3.1.14 
इत्यूचिवांस्तत्र सुयोधनेन
प्रवृद्धकोपस्फुरिताधरेण ।
असत्कृत: सत्स्पृहणीयशील:
क्षत्ता सकर्णानुजसौबलेन ॥ १४ ॥
 
शब्दार्थ
इति—इस प्रकार; ऊचिवान्—कहते हुए; तत्र—वहाँ; सुयोधनेन—दुर्योधन द्वारा; प्रवृद्ध—फूला हुआ; कोप—क्रोध से; स्फुरित—फडक़ते हुए; अधरेण—होठों से; असत्-कृत:—अपमानित; सत्—सम्मानित; स्पृहणीय-शील:—वांछित गुण; क्षत्ता—विदुर; स—सहित; कर्ण—कर्ण; अनुज—छोटे भाइयों; सौबलेन—शकुनि सहित ।.
 
अनुवाद
 
 विदुर जिनके चरित्र का सभी सम्मानित व्यक्ति आदर करते थे, जब इस तरह बोल रहे थे तो दुर्योधन द्वारा उनको अपमानित किया गया। दर्योधन क्रोध के मारे फूला हुआ था और उसके होंठ फडक़ रहे थे। दुर्योधन कर्ण, अपने छोटे भाइयों तथा अपने मामा शकुनी के साथ था।
 
तात्पर्य
 कहा जाता है कि मूर्ख व्यक्ति उपदेश देने पर क्रुद्ध होता है, जिस तरह सर्प को दूध पिलाने से उसका विष बढ़ता है। सन्त विदुर इतने आदरणीय थे कि सारे सम्मानित व्यक्ति उनके चरित्र की ओर देखते थे। किन्तु दुर्योधन इतना मूर्ख था कि उसने विदुर का अपमान करने का दुस्साहस कर डाला। यह उसके मामा शकुनि तथा उसके मित्र कर्ण की कुसंगति का फल था, जो उसके दुष्कृत्यों में सदा ही उसे उकसाते रहते थे।
 
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