इस तरह पृथ्वी का भ्रमण करते हुए उन्होंने भगवान् हरि को प्रसन्न करने के लिए कृतकार्य किये। उनकी वृत्ति शुद्ध एवं स्वतंत्र थी। वे पवित्र स्थानों में स्नान करके निरन्तर शुद्ध होते रहे, यद्यपि वे अवधूत वेश में थे—न तो उनके बाल सँवरे हुए थे न ही लेटने के लिए उनके पास बिस्तर था। इस तरह वे अपने तमाम परिजनों से अलक्षित रहे।
तात्पर्य
तीर्थयात्री का सर्वप्रमुख कर्तव्य (कृतकार्य) भगवान् हरि को प्रसन्न करना है। तीर्थयात्रा करते समय उसे समाज की प्रसन्नता की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। उसे सामाजिक औपचारिकताओं या वृत्ति या वेश पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं रहती। उसे सदा भगवान् को प्रसन्न करने वाले कार्य में लीन रहना चाहिए। इस तरह विचार तथा कर्म से शुद्ध हुआ तीर्थयात्री तीर्थ यात्रा की विधि से परमेश्वर का साक्षात्कार कर सकता है।
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