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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 1: विदुर द्वारा पूछे गये प्रश्न  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  3.1.21 
तत्राथ शुश्राव सुहृद्विनष्टिं
वनं यथा वेणुजवह्निसंश्रयम् ।
संस्पर्धया दग्धमथानुशोचन्
सरस्वतीं प्रत्यगियाय तूष्णीम् ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
तत्र—वहाँ; अथ—तत्पश्चात्; शुश्राव—सुना; सुहृत्—प्रियजन; विनष्टिम्—मृत; वनम्—जंगल; यथा—जिस तरह; वेणुज वह्नि—बाँस के कारण लगी अग्नि; संश्रयम्—एक दूसरे से घर्षण; संस्पर्धया—उग्र कामेच्छा द्वारा; दग्धम्—जला हुआ; अथ— इस प्रकार; अनुशोचन्—सोचते हुए; सरस्वतीम्—सरस्वती नदी को; प्रत्यक्—पश्चिम की ओर; इयाय—गया; तूष्णीम्—मौन होकर ।.
 
अनुवाद
 
 प्रभास तीर्थ स्थान में उन्हें पता चला कि उनके सारे सम्बन्धी उग्र आवेश के कारण उसी तरह मारे जा चुके हैं जिस तरह बाँसों के घर्षण से उत्पन्न अग्नि सारे जंगल को जला देती है। इसके बाद वे पश्चिम की ओर बढ़ते गये जहाँ सरस्वती नदी बहती है।
 
तात्पर्य
 कौरव तथा यादवगण दोनों ही विदुर के सम्बन्धी थे। विदुर ने बन्धुघाती युद्ध के फलस्वरूप उनके सर्वनाश का समाचार सुना। जंगली बाँसों के घर्षण की तुलना आवेशपूर्ण (विक्षुब्ध) मानव समाज से करना उपयुक्त है। सम्पूर्ण संसार की तुलना जंगल से की गई है। जंगल में घर्षण के कारण किसी भी क्षण आग भडक़ सकती है। जंगल में कोई आग लगाने नहीं जाता, किन्तु बाँसों के बीच संघर्षण मात्र से अग्नि उत्पन्न हो जाती है, जो सारे जंगल को जला डालती है। इसी तरह सांसारिक मेरा-तेरा रूपी महत्तर जंगल में माया के द्वारा मोहित बद्ध आत्माओं के उग्र आवेश के कारण युद्ध रूपी अग्नि लग जाती है। ऐसी सांसारिक अग्नि सन्तों की कृपा रूपी बादल के जल से ही बुझाई जा सकती है, जिस तरह जंगल की आग केवल बादल से बरसने वाली वर्षा से बुझाई जा सकती है।
 
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